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________________ व्यक्तिधर्म ही है / जैनधर्मकी यह सामान्य व्याख्या है। इसके अन्तर्गत वे सब व्याख्याएँ आ जाती हैं जो जैनसाहित्यमें यत्र-तत्र प्रयोजन विशेषको ध्यानमें रखकर की गई हैं। सम्यग्दर्शन धर्म और उसका अधिकारी___ यहाँ तक हमने जैनधर्मके मूल स्वरूपका विचार किया। यहाँ उसके एक अङ्ग सम्यग्दर्शनका विचार करना है और यह देखना है कि जैनधर्मका यह अंश किस गतिमें किस मर्यादा तक हो सकता है। यह तो हम पहले ही बतला आये हैं कि धर्मके अवयव तीन हैं-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र / आत्माकी स्वतन्त्रता और मोक्ष इन दोनोंका अर्थ एक है, इसलिए इन तीनोंको मोक्षमार्ग भी कहते हैं, क्योंकि इन तीनोंका आश्रय करनेसे आत्माको पूर्ण स्वतन्त्रता प्राप्त करने में पूरी सहायता मिलती है। यदि यह कहा जाय कि आत्मस्वरूप इन तीनोंकी प्राप्ति ही परिपूर्ण मोक्ष है तो कोई अत्युक्ति न होगी। इनमें से सर्व प्रथम सम्यग्दर्शन उत्पन्न होता है। सम्यग्ज्ञान उसका अविनाभावी है। सच्चे देव, गुरु और शास्त्र तथा जीवादि सात तत्त्वोंकी दृढ़ श्रद्धा होना यह सम्यग्दर्शनका बाह्य रूप है। तथा स्व और परका भेदविज्ञान होकर मिथ्या श्रद्धाका अन्त होना यह उसका आभ्यन्तर रूप है। वह किसके उत्पन्न होता है इस प्रश्न का उत्तर देते हुए षटवण्डागममें कहा है कि वह पञ्चेन्द्रिय संज्ञी और पर्याप्त जीवके ही उत्पन्न हो सकता है, अन्यके नहीं / षट्खण्डागमका वह वचन इस प्रकार है सो पुण पंचिंदिओ सण्णी मिच्छाइट्ठी पजत्तओ सव्वविसुद्धो / यहाँ पर हमने सूत्रमें आये हुए 'मिच्छाइट्टी' पदका अर्थ छोड़ दिया ... तत्त्वार्थसूत्र अ० 1 स्० 1 / . 2. जोवट्ठाण सम्मत्तुपत्तिचूलिवा सूत्र 4 /
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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