________________ - वर्ण, जाति और धर्म है / धर्मके इस स्वरूपको प्राचार्य कुन्दकुन्दने प्रवचनासारमें इन शब्दोंमें ' व्यक्त किया है चारित्तं खलु धम्मो धम्मो जो सो समो त्ति. णिद्दिडो / मोहक्खोहविहीणो परिणामो अप्पणो हु समो // 7 // इस गाथामें मुख्य रूपसे तीन शब्द आये हैं चारित्र, धर्म और सम / संसारी जीवकी स्वातिरिक्त शरीर आदिमें और शरीर आदिके निमित्तसे उत्पन्न होनेवाले भावोंमें 'अहम्' बुद्धि हो रही है। इसके तुभित होनेका यही कारण है / जितनी मात्रामें इसके क्षोभ पाया जाता है यह अपने सम परिणामसे च्युत होकर उतनी मात्रामें दुखी होता है। बाह्य धन-विभवादि और स्त्री, पुत्र, कुटुम्बादि सुखके कारण हैं और इनका. अभाव दुखका कारण है ऐसा मानना भ्रम है, क्योंकि अन्तरङ्गमें मोह और क्षोभके होने पर ही इनके सद्भावको उपचारसे सुख और दुखंका कारण कहा जाता है। वास्तवमें दुखका कारण तो आत्माका मोह और क्षोभरूप आत्मपरिणाम है और सुखका कारण इनके त्यागरूप सम परिणाम है, इसलिए आत्माका एकमात्र सम परिणाम ही धर्म है और धर्म होनेसे वही उपादेय तथा आचरणीय है / यहाँ पर हमने क्षोभका कारण मोहको बतलाया है / पर उसका आशय इतना ही है कि मोह और क्षोभ इन दोनोंमें मोहकी मुख्यता है / मोहका अभाव होने पर क्षोभका अभाव होनेमें देर नहीं लगती। मोहभावके सद्भावमें अपनेसे सर्वथा भिन्न पदार्थों में अभेद-अद्वैत बुद्धि होती है और क्षोभभावके सद्भावमें ममकार बुद्धि होती है। चाहे 'अहम्' बुद्धि हो या 'ममकार' बुद्धि, हैं ये दोनों संसारको बढ़ानेवाली हो / वे महापुरुष धन्य हैं जिन्होंने इन पर विजय प्राप्त कर संसारके सामने धर्मका आदर्श उपस्थित किया है। जैनधर्म एकमात्र इसी धर्मका प्रतिनिधित्व करता है। उसे आत्मधर्म कहनेका यही कारण है। 'जिन' उस आत्माका नाम है जिसने मोह और क्षोभ पर विजय प्राप्त कर ली है। अतः उनके द्वारा प्रतिपादित धर्मको जैनधर्म या आत्मधर्म कहना उचित