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________________ - न्यक्तिधर्म है। इस कारण यह लोकमें विरुद्धताको लिए हुए अनेक प्रकारकी चेष्टाएँ करता रहता है। कभी शरीर और धनादिके हानि-लाभमें अपना हानि-लाभ मानता है / कभी लोकमान्य कुलमें उत्पन्न होने पर अपनेको कुलीन और कभी लोकनिन्दित कुलमें उत्पन्न होकर अपनेको अकुलीन अनुभव करता है। कभी मनुष्यादि पर्यायका अन्त होनेपर अपना मरण मानता है और कभी नूतन पर्याय मिलने पर अपनी उत्पत्ति मानता है। तात्पर्य यह है कि कर्मके संयोगसे जितने भी खेल होते हैं उन सबको यह अपना स्वरूप ही समझता है / जीव और पुद्गलके संयोगसे उत्पन्न हुई इन विविध अवस्थाओंमें यह इतना भूला हुआ है जिससे अपने स्वतन्त्र व्यक्तित्वको पहिचान कर उसे प्राप्त करनेकी ओर इसका एक क्षण के लिए भी ध्यान नहीं जाता / किन्तु जीवकी इस शोचनीय अवस्थासे उसीकी बिडम्बना हो रही है। इससे निस्तार पानेका यदि कोई उपाय है तो वह यही हो सकता है कि यह जीव सर्व प्रथम योग्य परीक्षा द्वारा अपने स्वतन्त्र व्यक्तित्वकी पहिचान करे / इसके बाद बाधक कारणोंको दूर कर उसे प्राप्त करनेके उद्यममें लग जाय / जीवका यह कर्तव्य ही उसका धर्म है। धर्म और अधर्मकी व्याख्या करते हुए स्वामी समन्तभद्र रत्नकरण्डमें कहते हैं--- सदृष्टि-ज्ञान-वृत्तानि धर्म धर्मेश्वरा विदुः / यदीयप्रत्यनीकानि भवन्ति भवपद्धतिः // 3 // अर्थात् धर्मके ईश्वर तीर्थङ्करोंने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रको धर्म कहा है / तथा इनके विपरीत मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र संसारके कारण हैं / - जो श्रद्धा, ज्ञान और आचार जीवकी स्वतन्त्रता प्राप्तिमें प्रयोजक हैं वे सम्यक् हैं और जो श्रद्धा, ज्ञान और आचार जीवकी परतन्त्रतामें प्रयोजक हैं वे मिथ्या हैं। इनके सम्यक् और मिथ्या होनेका यही विवेक है / तथा इसी आधार पर धर्म और अधर्मकी पहिचान की जाती
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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