________________ 24 : वर्ण, जाति और धर्म हित करनेवाला है तो वह किसीको अज्ञानी बनाये रखनेमें सहायक नहीं हो सकता। जैनधर्मकी व्याख्या द्रव्य छह हैं-जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल / इनमें पाँच द्रव्य जड़ होकर भी स्वयं प्रकाशमान और स्वप्रतिष्ठ हैं। इनका अन्य द्रव्योंके साथ संयोग होनेपर भी वे अपने स्वरूपमें ही निमग्न रहते हैं / किन्तु चेतन होकर भी जीव द्रव्यकी स्थिति इससे कुछ भिन्न हैं / यद्यपि अन्य द्रव्योंके समान जीव द्रव्य भी स्वयं प्रकाशमान और स्वप्रतिष्ठ है / तथा अन्य द्रव्यका संयोग होने पर वह भी अपने स्वरूपसे च्युत नहीं होता / एक द्रव्य फिर चाहे वह जड़ हो या चेतन अपने स्वरूपको छोड़कर अन्य द्रव्यरूप कभी नहीं होता। जीव द्रव्य इसका अपवाद नहीं हो सकता / न्यायका सिद्धान्त है कि सतका विनाश और असतका उत्पाद नहीं होता, इस कथनका भी यही आशय है / यदि विवक्षित द्रव्य अपने स्वरूपको छोड़कर अन्य द्रव्यरूप परिणमन करने लगे तो वह सतका विनाश और असतका उत्पाद ही माना जायगा। किन्तु ऐसा होना त्रिकालमें सम्भव नहीं है, इसलिए जीवद्रव्य अपने स्वरूपको छोड़कर कभी भी अन्य द्रव्यरूप नहीं होता यह तो स्पष्ट है / तथापि इसका अनादिकालसे पुद्गल द्रव्य (कर्म और नोकर्म) के साथ संयोग होनेसे इसने उस संयुक्त अवस्था को ही अपना स्वरूप मान लिया है / जो इसका ज्ञान और दर्शन स्वरूप आन्तर जीवन है उसको तो. यह भूला हुआ है और संसारमें संयुक्त अवस्था होनेके कारण अज्ञानवश उसमें ही इसकी स्वरूपबुद्धि हो रही 1 भावस्स णत्थि णासो णत्थि अभावस्स चेव उप्पादो।' पञ्चास्तिकाय गा० 15 / 2 नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः। .. भगवद्गीता भ० 2 श्लोक 15 /