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________________ आवश्यक षट्कर्म मीमांसा 285 तत्राकामकृते शुद्धिः प्रायश्चित्तैर्विधीयते / पश्चाश्चात्मालयं सूनी व्यवस्थाप्य गृहोज्झनम् // 39-148 // चर्यैषा गृहिणां प्रोक्ता जीवितान्ते तु साधनम् / देहाहारहितत्यागात् ध्यानशुद्धयात्मशोधनम् // 36-146 // मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ्यभावसे वृद्धिको प्राप्त हुआ समस्त हिंसादिका त्याग करना जैनियोंका पक्ष कहलाता है / देवताके लिए, मन्त्रोंकी सिद्धिके लिए, औषधिके लिए और आहारके लिए मैं हिंसा नहीं करूँगा ऐसी चेष्टा करना चर्या कहलाती है। इसमें किसी प्रकारका दोष लग जाने पर प्रायश्चित्तसे उसकी शुद्धि की जाती है. तथा अपना घर पुत्रको सौंप कर घरका त्याग किया जाता है। यह गृहस्थोंकी चर्या है / तथा जीवनके अन्तमें देह, आहार और अन्य चेष्टानोंका त्याग कर ध्यानकी शुद्धिपूर्वक आत्माका शोधन करना साधन कहलाता है। ___यह तो भरत चक्रवर्तीको मुख बना कर आचार्य जिनसेनका कथन है। अब इसके प्रकाशमें सागारधर्मामृतके इस उल्लेखको पढ़िये स्यान्मैयाधुपबृंहितोऽखिलवधत्यागो न हिंस्यामहं धर्माद्यर्थमितीह पक्ष उदितं दोषं विशोध्योज्झतः / सूनौ न्यस्य निजान्वयं गृहमथो चर्या भवेत्साधनं स्वन्तेऽन्नेहतनूज्झनाद्विशदया ध्यात्यात्मनः शोधनम् // 1-16 // मैं धर्मादिके लिए हिंसा नहीं करूँगा इस प्रकार मैत्री आदि भावनाओं से वृद्धिको प्राप्त हुआ जो समस्त वधका त्याग है वह पक्ष कहलाता है। कृषि आदिके निमित्तसे उत्पन्न हुए दोषोंका संशोधन कर और अपने पुत्रके ऊपर अपने वंशका भार रख कर घरका त्याग करना चर्या कहलाती है। तथा अन्तमें भोजन, चेष्टाएँ और शरीरका त्याग कर निर्मल ध्यान द्वारा आत्माका शोधन करना साधन कहलाता है // 1-16 // इसमें सन्देह . नहीं कि पण्डितप्रवर आशाधरजीका उक्त कथन महापुराणका अनुसरण करता है। फिर भी उन्होंने अपने कथनमें दो
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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