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________________ 284 वर्ण, जाति और धर्म उसके मधुत्याग, मांसत्याग, पाँच उदुम्बर फलोंका त्याग और पाँच स्थूल पापोंका त्याग ये सदा काल रहनेवाले व्रत रह जाते हैं। हम यहाँ पर यह स्पष्ट कर देना चाहते हैं कि एक तो महापुराणकारने स्वयं इन्हें आठ मूलगुण नहीं कहा है। दूसरे सागारधर्मामृतमें महापुराण के अनुसार जिन आठ मूलगुणोंका उल्लेख उपलब्ध होता है उनसे उक्त उल्लेखमें कुछ अन्तर है / परन्तु यहाँ हमें उसका विशेष विचार नहीं करना है। यहाँ तो हमें यह बतलाना है कि महापुराणमें यह उपदेश जैनधर्मके अनुसार होने पर भी समाजधर्मके रूपमें महापुराणकारने मनुस्मृतिसे स्वीकार किया है / महापुराणके बाद उत्तर लेखकोंकी यह चतुराई है कि उन्होंने अाठ मूलगुण संज्ञा देकर इन्हें श्रावकधर्मका अङ्ग बना लिया है। वस्तुतः महापुराणमें इन्हें श्रावकधर्म न कहकर मात्र द्विजोंके सार्वकालिक व्रत कहा गया है। चारित्रप्राभृत, तत्वार्थसूत्र और रत्नकरण्ड श्रादिमें श्रावकके जो बारह व्रत कहे गये हैं उन्हें आचार्य जिनसेन ऐसे भुला देते हैं मानो इन मधुत्याग आदि व्रतोंके सिवा अन्य व्रत हैं ही नहीं / प्राचार्य जिनसेन उस द्विजको गृहीशिता जैसा बड़ेसे बड़ा पद दिलाते हैं, उसे प्रशान्तिक्रिया करनेका उपदेश देते हैं और अन्तमें उससे गृहत्याग कराते हैं। परन्तु इतना सब होने पर भी उसके मुनि होनेके पूर्वकाल तक मधुत्याग आदि व्रत ही रहते हैं / न वह बारह व्रतोंको स्वीकार करता है और न ग्यारह प्रतिमाओं पर आरोहण ही करता है। आचार्य जिनसेनने गृहस्थके असिआदि कर्मके करनेके कारण लगनेवाले दोषोंकी शुद्धि करने के लिए विशुद्धिके तीन अङ्गोंका उल्लेख किया हैपक्ष, चर्या और साधन / इनकी व्याख्या करते हुए वहाँ पर कहा गया है तत्र पक्षो हि जैनानां कृत्स्नहिंसादिवर्जनम् / मैत्रीप्रमोदकारुण्यमाध्यस्थ्यैरुपबृंहितम् // 36-146 // चर्या तु देवताथं वा मन्त्रसिद्धयर्थमेव वा। . औषधाहारक्लुप्त्य वा न हिंस्यामीति चेष्टितम् // 36-147 //
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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