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________________ 283 भावश्यक षट्कर्म मीमांसा वैसे रत्नकरण्डकी स्थितिको देखते हुए उसमें मूलगुणोंका प्रतिपादन करनेवाला श्लोक प्रक्षिप्त होना चाहिए ऐसा हमारा अनुमान है / इसके कारण कई हैं। यथा-१. रत्नकरण्डसे पूर्ववर्ती साहित्यमें श्रावकोंका धर्म आठ मूलगुण और बारह उत्तरगुणरूप है ऐसा उल्लेख नहीं उपलब्ध होता / 2. रत्नकरण्डमें चारित्रके सकलचारित्र और देशचारित्र ऐसे दो भेद करके पाँच अणुव्रत तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत मात्र इन बारह व्रतोंके कहनेकी प्रतिज्ञा की गई है वहाँ आठ मूलगुणोंके कहनेकी प्रतिज्ञा नहीं की गई है / 3. रत्नकरण्डमें अतीचार सहित पाँच अणुव्रतोंका कथन करनेके बाद आठ मूलगुणोंका कथन किया है / किन्तु वह इनके कथन करनेका उपयुक्त स्थल नहीं है / 4 आठ मूलगुणोंमें तीन प्रकारके त्यागका अन्तर्भाव कर लेनेके बाद भोगोपभोगपरिमाणव्रतमें इनके त्यागका पुनः उपदेश देना सम्भव नहीं था। तथा 5. रत्नकरण्डके बाद रची गई सर्वार्थसिद्धिमें किसी भी रूपमें इनका उल्लेख नहीं पाया जाता / जब कि उसमें रत्नकरण्डके समान भोगोपभोगपरिमाणवतका कथन करते समय तीन मकारोंके त्यागका उपदेश दिया गया है। ये ऐसे कारण हैं जो रत्नकरण्डमें आठ मूलगुणोंके उल्लेखको प्रक्षिप्त मानने के लिए पर्याप्त प्रतीत होते हैं। ... मनुस्मृतिमें जिस द्विजका यज्ञोपवीत संस्कार हो गया है उसे किनकिन नियमोंका पालन करना चाहिए इसका विधान करते हुए जो नियम दिथे हैं उनमें उसे मधु और मांस नहीं खाना चाहिए, शुक्त (मद्य ) नहीं पीना चाहिए, प्राणियोंकी हिंसा नहीं करनी चाहिए, जुआ नहीं खेलना चाहिए, असत्य नहीं बोलना चाहिए, मैथुनकी इच्छासे स्त्रियोंकी ओर नहीं देखना चाहिए, उनका आलिङ्गन नहीं करना चाहिए इत्यादि नियम भी दिये हैं / महापुराणमें भी जिस द्विजका यज्ञोपवीत संस्कार हुआ है उसके लिए भी प्रायः इन्हीं. नियमोंका उल्लेख किया गया है और इसी प्रसङ्गसे व्रतावतार क्रियाको स्वतन्त्र स्थान देकर यह कहा गया है कि
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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