________________ 252 वर्ण, जाति और धर्म आठ मूलगुण___ अब इस प्रसङ्गमें एक ही बात हमारे सामने विचारणीय रह जाती है और वह है आठ मूलगुणोंका विचार। आठ मूलगुण पाँच अणुव्रत और भोगोपभोगपरिमाणवतकी पुष्टिमें सहायक हैं, इसलिए ये आगमपरम्पराका प्रतिनिधित्व करते हैं इसमें सन्देह नहीं। किन्तु ये किस कालमें किस क्रमसे श्रावकाचारके अङ्ग बने यह बात अवश्य ही विचारणीय है / पण्डितप्रवर आशाधरजीने स्वमतसे तीन मकार और पाँच उदुम्बर फलोंके त्यागरूप आठ मूलगुण बतलाकर पक्षान्तरका सूचन करनेके लिए एक श्लोक निबद्ध किया है। उसमें उन्होंने अपने मतके उल्लेखके साथ दो अन्य मतोंका उल्लेख किया है / स्वामी समन्तभद्रके मतका उल्लेख करते हुए वे कहते हैं कि जो हमने त्यागने योग्य पाँच फल कहे हैं उनके स्थानमें पाँच स्थूलवधादिके त्यागको स्थान देनेसे स्वामी समन्तभद्रके मतके अनुसार आठ मूलगुण हो जाते हैं / तथा स्वामी समन्तभद्र के द्वारा स्वीकृत जो आठ मूलगुण हैं उनमेंसे मधुत्यागके स्थानमें छूतत्याग रख लेनेसे श्राचार्य जिनसेनके महापुराण के अनुसार आठ मूलगुण हो जाते हैं / पण्डितप्रवर आशाधरजीने आगे चलकर ऐसे भी आठ मूलगुणोंका निर्देश किया है जिनमें स्वयं उनके द्वारा बतलाये गये आठ मूलगुणोंका समावेश तो हो ही जाता है। साथ ही उनमें पाँच परमेष्ठियोंकी स्तुतिवन्दना, जीवदया, जलगालन और रात्रिभोजनत्याग ये चार नियम और सम्मिलित हो जाते हैं / इस प्रकार सब मिलाकर चार प्रकारके मूलगुण वर्तमानकालमें जैन साहित्यमें उपलब्ध होते हैं। ऐतिहासिक क्रमसे देखने पर स्वामी समन्तभद्रके रत्नकरण्डमें पाये जानेवाले मूलगुणोंका स्थान प्रथम है, महापुराणमें पाये जानेवाले मूलगुणोंका स्थान द्वितीय है और शेष दो प्रकारके मूलगुणोंका स्थान तृतीय है। यहाँपर हमने रत्नकरण्डको रचना महापुराणसे बहुत पहिले हो गई थी इस अभिप्रायको ध्यानमें रखकर रत्नकरण्डमें निबद्ध मूलगुणोंको प्रथम स्थान दिया है /