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________________ 286 वर्ण, जाति और धर्म संशोधन करके ही उसे ग्राह्य माना है यह महत्त्वको बात है। पहिला संशोधन तो उन्होंने पक्ष और चर्या के लक्षणोंमें थोड़ा-सा किन्तु महत्त्वपूर्ण परिवर्तन करके किया है। जहाँ आचार्य जिनसेन देवता आदिके लिए हिंसा न करनेकी चेष्टाको चर्या कहते हैं वहाँ पण्डितजी इसे पक्षके लक्षणमें परिगणित कर लेते हैं। एक संशोधन तो उन्होंने यह किया। उनका दूसरा संशोधन है चर्याके लक्षणमें दर्शनिक आदि अनुमतित्याग तककी प्रतिमाओंको सम्मिलित कर लेना / . पण्डितजीने यह दूसरा संशोधन अपनी टीका द्वारा सूचित किया है जो इस बातको सूचित करनेके लिए पर्याप्त है कि वे इस द्वारा श्रावकाचारका वर्णाश्रमधर्मके साथ समन्वय करनेका प्रयत्न करनेका प्रयत्न कर रहे हैं। इस प्रकार प्राचार्य जिनसेन और पण्डितप्रवर आशाधरजीके उक्त कथनमें जो अन्तर दिखलाई देता है वह हमें बहुत कुछ सोचनेके लिए बाध्य करता है / हमने महापुराणका बहुत ही बारीकीसे अध्ययन किया है। हमने महामुराणके उन प्रकरणोंको भी पढ़ा है. जहाँ जहाँ भगवान् श्रादिनाथके मुखसे मोक्षमार्गका उपदेश दिलाया गया है। पर हमें वहाँ भी श्रावकके बारह व्रतों, उनके अतीचारों और ग्यारह प्रतिमानोंके स्वरूपका स्पष्टीकरण दिखलाई नहीं दिया। इतने बड़े पुराणमें भरत चक्रवर्तीके मुखसे वर्णाश्रमधर्मका कथन करनेके लिए, आचार्य जिनरोन कई पर्वोकी रचना करें / किन्तु जिस श्रावकाचारका 1 महापुराणके दसवें सर्गमें श्लोक 156 से लेकर 167 तक है श्लोकोंमें ग्यारह प्रतिमा और श्रावकके बारह व्रतोंके नाम अवश्य गिनाए गये हैं। किन्तु वह कथन विदेहक्षेत्रके कथनके प्रसङ्गसे आया है। उन्होंने कहीं-कहीं एकादशस्थान कहकर श्रावककी ग्यारह प्रतिमाओंकी ओर भी इशारा किया है। परन्तु ऐसा करते हुए भी महापुराणकारका लक्ष्य श्रावकधर्मको गौण करके मनुस्मृतिके अनुसार कुलधर्मकी प्रतिष्ठा करना ही
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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