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________________ आवश्यक षटकम मीमांसा 276 सद्भावमें रागभाग सातिशय पुण्यका कारण है। हमने पहले सामायिक आदि जिन षट् कर्मोंकी चरचा की है उनमें सातिशय पुण्यबन्ध करानेकी योग्यता तो है ही। साथ ही वे कर्मक्षपणामें भी कारण हैं / किन्तु प्राचार्य जिनसेनने जिन छह कर्मोंका उल्लेख किया है उन्हें वे स्वयं ही कुलधर्म संज्ञा दे रहे हैं। साथ ही उनमें एक कर्म वार्ता भी है। जिसे धार्मिक क्रियाका रूप देना यह बतलाता है कि ये छह कर्म किसी भिन्न अभिप्रायसे संकलित किये गये हैं / यह तो स्पष्ट हैं कि जैनधर्ममें जो भी क्रिया कुलाचारके रूपमें स्वीकार की जाती है वह मोक्षमार्गका अङ्ग नहीं बन सकती / हमें ऐसा लगता है कि पण्डितप्रवर आशाधरजीको प्राचार्य जिनसेनका यह कथन बहुत अधिक खटका, इसलिए उन्होंने नामोल्लेख करके उनके इस विधानका विरोध तो नहीं किया। किन्तु पाक्षिक श्रावकके आठ मूलगुणोंका कथन करते समय वे यह कहूनेसे भी नहीं चूके कि जो यह जिनेन्द्रदेवकी श्राज्ञा है इस श्रद्धानके साथ मद्यादिविरति करता है वही देशवती हो सकता है, कुलधर्म आदि रूपसे मद्यादिविरति करनेवाला नहीं। इस दोषको केवल पण्डितप्रवर श्राशाधरजीने ही समझा हो ऐसी बात नहीं है, उत्तरकालीन दूसरे लेखकोंने भी समझा है / जान पड़ता है कि उन्होंने प्राचार्य जिनसेन द्वारा प्रतिपादित षटकर्मों में से वार्ता शब्दको हटा कर उसके स्थानमें गुरूपास्ति शब्द रखनेको योजना इसी कारणसे की है। ___ श्रावकदीक्षा और मुनिदीक्षा केवल तीन वर्णके मनुष्य ले सकते हैं इत्यादि सब कथनके लिए प्राचार्य जिनसेनने यद्यपि भरत चक्रवर्तीको आलम्बन बनाया है और इस प्रकार प्रकारान्तरसे उन्होंने यह सूचित कर दिया है कि परिस्थितिवश ही हमें ऐसा करना पड़ रहा है, कोई इस कथनको जिनाज्ञा नहीं समझे / परन्तु इतने अन्तस्तलकी ओर किसका ध्यान जाता है। कहते हैं महापुराणमें ऐसा कहा है। आप महापुराणको ही नहीं मानते। अरे ! मानते क्यों नहीं, मानते हैं। परन्तु मोक्षमार्गमें तो भगवान् सर्वज्ञप्रणीत वाणी ही प्रमाण मानी जायगी। आगमका अर्थ
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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