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________________ 280 वर्ण, जाति और धर्म यह नहीं है कि किसी काव्यग्रन्थमें राजाके या अन्य किसीके मुखसे या कविने स्वयं उत्प्रेक्षा और उपमा आदि अलङ्कारोंका आश्रय लेकर वसन्त श्रादि ऋतुअोंका वर्णन किया हो तो उसे ही श्रागमप्रमाण मान लिया जाय / या किसी स्त्रीका नख-शिख तक शृंगारादि वर्णन किया हो तो उसे भी आगमप्रमाण मान लिया जाय / आगमकी व्याख्या सुनिश्चित हैं। जो केवली या श्रुतकेवलीने कहा हो या अभिन्न दशपूर्वीने कहा हो वह आगम है / तथा उसका अनुसरण करनेवाला अन्य जितना कथन है वह . भी आगम है / अब देखिए, भरत चंक्रवर्ती ब्राह्मणवर्णकी स्थापना करते समय न तो केवली थे, न श्रुतकेवली थे और न अभिन्नदशपूर्वी ही थे / ऐसी अवस्थामें उनके द्वारा कहा गया महापुराणमें जितना भी वचन मिलता है उसे आगम कैसे माना जा सकता है। इतना ही नहीं, गृहस्थ अवस्थामें स्वयं श्रादिनाथ जिनने जो असि श्रादि षटकर्मव्यवस्थाका उपदेश दिया उसे भी आगम नहीं माना जा सकता। आगमका सम्बन्ध केवल मोक्षमार्गसे है, सामाजिक व्यवस्थाके साथ नहीं। सामाजिक व्यवस्थाएँ बदलती रहती हैं, परन्तु मोक्षमार्गकी व्यवस्था त्रिकालाबाधित सत्य है / उसमें परिवर्तन नहीं हो सकता। किसी हद तक इस सत्यको सोमदेव सूरिने हृदयंगम किया था। परिणामस्वरूप उन्होंने गृहस्थोंके धर्मके दो भेद करके यह कहनेका साहस किया कि पारलौकिक धर्ममें आगम प्रमाण है। उनके सामने महापुराण था, महापुराणमें लौकिक धर्मका भी विवेचन हुआ है, वे यह भी जानते थे। फिर क्या कारण है कि वे इसे प्रमाणरूपमें उपस्थित नहीं करते / हमें तो लगता है कि महापुराणका यह कथन उन्हें भी नहीं रुचा / इस प्रकार हम देखते हैं कि सोमदेवसूरिने और पण्डितप्रवर आशाधर जीने केवल महापुराणके उक्त कथनके बहावमें न बह कर किसी हद तक उस सत्यका उद्घाटन किया है जिस पर महापुराणके उक्त कथनसे आवरण पड़ गया था। इतना सब होने पर भी इनके कथनमें भी उसी लौकिक धर्मको स्थान मिल गया है जिसके
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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