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________________ 278 वर्ण, जाति और धर्म जलादि द्रव्यसे की गई पूजाको ही पूजा मानता है, तो कोई इसे आडम्बर . . मान कर इसके प्रति अनादर प्रकट करता है / कोई पूजा करते समय बीच बीचमें बातचीत करता जाता है तो कोई विश्रान्ति लेनेके अभिप्रायसे कुछ कालके लिए पूजा कर्मसे ही विरत हो जाता है। कोई किसी प्रकारसे पूजा करता है और कोई किसी प्रकारसे। उसका कारण यही है कि न तो पूजा करनेवालेने समताभावसे प्रतिज्ञात होकर आवश्यक कृतिकर्म करनेका नियम लिया है और न यह ही प्रतिज्ञा की है कि मैं समता भावके साथ कितने काल तक कृतिकर्म करूँगा / रूढ़िवश गृहस्थ पूजादि कर्म करता अवश्य है और ऐसा करते हुए उसके कभी-कभी भावोद्रेकवश रोमाञ्च भी हो पाता है। परन्तु ऐसा होना मात्र तीव्र पुण्यबन्धका कारण नहीं है। यह एक रूढ़ि है कि जो जितना बड़ा समारम्भ करता है उसे उतना बड़ा पुण्यबन्ध होता है / वस्तुतः तीव्र पुण्यबन्धका कारण प्रारम्भकी बहुलता न होकर या भावोद्रेककी उत्कटता न होकर समताभावके साथ पञ्चपरमेष्ठीके गुणानुवाद द्वारा आत्मोन्मुख होना, अपने दो!का परिमार्जन करना और परावलम्बिनी वृत्तिके त्याग करनेके सन्मुख होना है / जहाँ आगममें यह बतलाया है कि अनुदिश और अनुत्तर विमानोंमें उत्पन्न होनेके योग्य आयुकर्मका बन्ध एक मात्र भावलिङ्गी मुनि करते हैं वहाँ यह भी बतलाया है कि नौ प्रैवेयकमें उत्पन्न होने के योग्य आयुकर्मका बन्ध द्रव्यलिङ्गी मुनि तो कर सकते हैं परन्तु आयुबन्धके योग्य उत्तमसे उत्तम परिणामवाला श्रावक नहीं कर सकता / क्यों ? क्या उक्त श्रावकका परिणाम द्रव्यलिङ्गी मुनिसे भी हीन होता है ? बात यह है कि द्रव्यलिङ्गी मुनि मिथ्यादृष्टि होने पर भी प्रारम्भ और बाह्य परिग्रहसे विरत रहता है और श्रावक सम्यग्दृष्टि देशव्रती होने पर भी आरम्भ और बाह्य परिग्रहमें अनुरक्त रहता है / इसीका यह फल है कि द्रव्यलिङ्गी मुनि नौवें अवेयक तक जाता है जब कि गृहस्थ . सोलहवें स्वर्गसे आगे जानेकी सामर्थ्य ही नहीं रखता / इससे सिद्ध है कि प्रारम्भकी बहुलता सातिशय पुण्यका कारण न होकर आत्मोन्मुख वृत्तिके
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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