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________________ 207 आवश्यक षटकर्म मीमांसा की जाती थी या स्वतन्त्र रूपसे, तत्काल यह कह सकना कठिन है, क्योंकि मूलाचारमें विनयके पाँच भेद करके लोकानुवृत्ति विनयको मोक्षविनयसे अलग रखकर उठ कर खड़े होना, हाथ जोड़ना, आसन देना, अतिथिकी पूजा करना और अपने वित्तके अनुसार देव पूजा करना इसको लोकानुवृत्ति विनयमें परिगणित किया है तथा सामायिक आदि छह कर्मोंको मोक्षविनयमें लिया है। इतना स्पष्ट है कि सामायिकादि छह कर्म साधुओंके समान गृहस्थोंके भी दैनिक कर्तव्योंमें सम्मिलित थे / यही कारण है कि बारहवीं तेरहवीं शताब्दिमें लिखे गये अमितिगति श्रावकाचारमें भी इनका उल्लेख पाया जाता है / सागारधर्मामृतमें श्रावकको दिनचर्यामें इनका समावेश किया गया है। इससे भी उक्त कथनकी पुष्टि होती है। यदि हम इन छह आवश्यक कर्मोंके प्रकाशमें महापुराणके कर्ता आचार्य जिनसेन द्वारा स्थापित किये गये इज्या, वार्ता, दत्ति, स्वाध्याय, संयम और तप इन आर्यषटकर्मोंको देखते हैं तो यह स्पष्ट हो जाता है कि इन कर्मोंको सङ्कलित करनेका अभिप्राय ही दूसरा रहा है / उत्तरकालवर्ती लेखकोंने वार्ताके स्थानमें गुरूपास्तिको रख कर इन कर्मोंको प्राचीन कर्मों के अनुरूप बनानेका प्रयत्न अवश्य किया है, परन्तु इतना करने पर भी जो भाव प्राचीन कर्मों में निहित है उसकी पूर्ति इन कर्मोंसे नहीं हो सकी है। कारण कि इनमेंसे सामायिक कर्मका अभाव हो जानेसे देवपूजा आदिक कर्म समताभावपूर्वक नहीं होते / प्रतिक्रमणको स्वतन्त्र स्थान न मिलनेसे स्वीकृत व्रतोंमें लगे हुए दोषोंका परिमार्जन नहीं हो पाता और प्रत्याख्यानको स्वतन्त्र स्थान न मिलनेसे प्रतिदिन अयोग्य या अप्रयोजनीय द्रव्यादिकका त्याग नहीं हो पाता / वर्तमान कालमें पूजा श्रादि कर्म करते समय जो अव्यवस्था देखी जाती है / यथा-कोई बैठ कर पूजा करनेका समर्थन करता है तो कोई खड़े हो कर पूजा करना आवश्यक मानता है। कोई 2 मूलाचार 7,83-84 /
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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