SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 278
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 276 वर्ण, जाति और धर्म धर्म जिनको नमस्कार हो, शान्तिहेतु शान्ति जिनको नमस्कार हो, कुन्थुनाथ जिनको नमस्कार हो, अरनाथ जिनको मन वचन और कायपूर्वक नमस्कार हो, शल्यका मर्दन करनेमें समर्थ मल्लि जिनको नमस्कार हो, मुनिसुव्रत जिनको नमस्कार हो, जिन्हें तीन लोक नमस्कार करता है और वर्तमान कालमें भरत क्षेत्रमें जिनका तीर्थ प्रवर्तमान है ऐसे नमिनाथ जिनको नमस्कार हो, जो आगे तीर्थङ्कर होनेवाले हैं और जो हरिवंशरूपी सुविस्तृत आकाशके मध्य चन्द्रमाके समान सुशोभित हैं ऐसे नेमिनाथ जिनको नमस्कार हो, पार्श्व जिनेन्द्रको नमस्कार हो, वीर जिनको नमस्कार हो, सब तीर्थङ्करोंके गणधरोंको नकस्कार हो, अरिहन्तोंके कृत्रिम और अकृत्रिम जिनालयोंको नमस्कार हो, तथा तीन लोकवर्ती जिन विम्बोंको नमस्कार हो / इस प्रकार स्तुति करके रोमांच होकर उन्होंने पञ्चांग नमस्कार किया / अनन्तर पहले के समान पुनः उठकर और कायोत्सर्ग करके पवित्र पाँच गुरुओंकी इस प्रकार स्तुति करने लगे। सर्वदा सब अरिहन्तों को, सब सिद्धोंको और पन्द्रह कर्मभूमियोंमें स्थित प्राचार्य, उपाध्याय और साधुओंको बार-बार नमस्कार हो। इसके बाद प्रदक्षिणा करके वे दोनों रथ पर चढ़कर वैभव के साथ चम्पा नगरीमें प्रविष्ट हुए'।' स्पष्ट है कि हरिवंशपुराणके इस उल्लेखमें प्रतिक्रमण और प्रत्याख्यान का निर्देश नहीं किया गया है / बहुत सम्भव है कि उस समय तक वसुदेव और उनकी पत्नी गन्धर्वसेनाने अणुव्रत न स्वीकार किये हों। मालूम पड़ता है कि एकमात्र इसी कारणसे यहाँ पर प्राचार्य जिनसेनने प्रतिक्रमण और प्रत्याख्यानको छोड़कर मात्र चार कर्मोंका निर्देश किया है। ___ हम यह तो मानते हैं कि प्राचीन कालमें जलादि आठ द्रव्योंसे अभिषेक पूर्वक जिनेन्द्र देवकी पूजा होती रही है, क्योंकि इसका उल्लेख सभी पुराणकारोंने किया है। किन्तु यह पूजा छह आवश्यक कर्मोंके अंग रूपमें 1 हरिवंशपुराण सर्ग 22 श्लो० 24-44 /
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy