________________ 274 वर्ण, जाति और धर्म शरीरका उत्सर्ग करना कायोत्सर्ग है / इन छह आवश्यक कर्मोको साधुनोंके समान अपने स्वीकृत व्रतोंके अनुसार गृहस्थ भी करते हैं। वैदिक परम्परामें नित्यकर्मका जो स्थान है जैनपरम्परामें वही स्थान छह आवश्यक कर्मोंका है / किन्तु प्रयोजन विशेषके कारणं. इन दोनोंमें बहुत अन्तर है / वैदिक धर्मके अनुसार नित्यकर्म जहाँ कुलधर्मके रूपमें किये जाते है वहाँ जैन परम्पराके अनुसार श्रावश्यककर्म आध्यात्मिक उन्नतिके अभिप्रायसे किये जाते हैं, इसलिये उनमें सबसे पहला स्थान, सामायिकको दिया गया है / चतुर्विंशतिस्तव आदि कर्मोके करनेके पहिले उसका सामायिककर्मसे प्रतिज्ञात होकर राग-द्वेषकी निबृत्तिपूर्वक समताभावको स्वीकार करना अत्यन्त आवश्यक है / इसके बिना उसके अन्य कर्म ठीक तरहसे नहीं बन सकते / विचार कर देखा जाय तो शेष पाँच कर्म सामायिककर्म के ही अङ्ग हैं। आगममें जिसे छेदोस्थापना कहा गया है उसका तात्पर्य भी यही है / साधु या गृहस्थ यथानियम प्रतिज्ञात समय तक आलम्बनके बिना समताभावमें स्थिर नहीं रह सकता, इसलिए वह सामायिकको स्वीकार कर अपने आदर्शरूप चौबीस तीर्थंकरोंकी स्तुति करता है, अन्य परमेष्ठियोंकी वन्दना करता है, स्वीकृत व्रतोंमें लगे हुए दोषोंका परिमार्जन करता है, यह सब विधि करते हुए कृतिकर्मके अनुसार कायोत्सर्ग करता है और आगामी कालमें जो द्रव्यादिक उपयोगमें आनेवाले हैं उनका नियम करता है। अर्थात् जो द्रव्यादिक अयोग्य या अप्रयोजनीय हैं उनका त्याग करता है / इसके बाद भी यदि सामायिकका समय शेष रहता है तो ध्यान और स्वाध्याय आदि आवश्यककर्म द्वारा उसे पूरा करता है / यहाँ इतना विशेष समझना चाहिए कि जिस प्रकार साधुके आवश्यक कर्मों में ध्यान और स्वाध्याय परिगणित हैं उस प्रकार प्रत्येक गृहस्थको अलगसे इन्हें करना ही चाहिए ऐसा कोई एकान्त नहीं है। इतना अवश्य है कि जो व्रती श्रावक हैं उन्हें कमसे कम तीनों कालोंमें छह आवश्यक कर्मों के करनेका नियम अवश्य है और जो व्रती नहीं हैं उन्हें छह आवश्यक कर्मों के