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________________ 273 आवश्यक षटकर्म मीमांसा गृहस्थधर्मका वर्णन दो प्रकारका उपलब्ध होता है-प्रथम बारह व्रतोंके रूपमें और दूसरा ग्यारह प्रतिमाओंके रूपमें / वहाँ गृहस्थोंके आवश्यक कर्मोंका अलगसे उल्लेख दृष्टिगोचर नहीं होता। किन्तु इतने मात्रसे प्राचीन कालमें गृहस्थोंके आवश्यक कर्मोंका अभाव मानना उचित नहीं है, क्योंकि पुराणसाहित्यमें तथा श्रमितिगतिश्रावकाचार आदि अन्य साहित्य में जो भी उल्लेख दृष्टिगोचर होते हैं और गृहस्थोंका प्रतिक्रमण सम्बन्धी जो भी.साहित्य प्रकाशमें आया है उससे यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि प्राचीन कालमें गृहस्थ अपने-अपने पदके अनुसार उन्हीं छह आवश्यक कर्मोंका समुचित रीतिसे पालन करते थे जो मुनियोंके लिए आवश्यक बतलाये गये हैं। जो पाँच इन्द्रियोंके विषय, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंके अधीन नहीं होता उसका नाम अवश्य है और उसके जो कर्तव्य कर्म हैं उन्हें आवश्यक कहते हैं। वे छह हैं-सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, वन्दना, प्रतिक्रमण प्रत्याख्यान और व्युत्सर्ग। विवरण इस प्रकार है-राग और द्वेषकी निवृत्तिपूर्वक समभाव अर्थात् मध्यस्थभावका अभ्यास करना तथा जीवन-मरणमें, लाभालाभमें, संयोग-वियोगमें, शत्रु-मित्रमें और सुख-दुखमें समताभाव धारण करना सामायिक है। अपने आदर्शरूप ऋषभ श्रादि चौबीस तीथंकरोंकी नामनिरुक्ति पूर्वक गुणोंका स्मरण करते हुए स्तुति करना चतुर्विंशतिस्तव है। प्राचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर और गणधर श्रादिके प्रति बहुमानके साथ आदर प्रकट करना वन्दना है। कृतिकर्म, चितिकर्म, पूजाकर्म और विनयकर्म ये वन्दनाके पर्यायवाची नाम हैं / निन्दा और गाँसे युक्त होकर पूर्वकृत अपराधोंका शोधन करना प्रतिक्रमण है / इसके दैवसिक, रात्रिक, पाक्षिक, मासिक, चातुर्मासिक, सांवत्सरिक, ऐपिथिक और उत्तमार्थ ये सात भेद हैं। आगामी कालको अपेक्षा अयोग्य द्रव्यादिकका त्याग करना प्रत्याख्यान है। तथा दिवस श्रादिके नियमपूर्वक जिनेन्द्रदेवके गुणों श्रादिका चिन्तवन करते हुए 18
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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