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________________ 272 वर्ण, जाति और धर्म सबने एक तो इज्यादिको तीन वर्णके कर्तव्योंमें न गिनाकर गृहस्थोंके आवश्यक कर्तव्योंमें गिनाया है। दूसरे उन्होंने वार्ताकर्मको हटाकर उसके स्थानमें गुरूपास्ति इस कर्मकी योजना की है। इसलिए इसपरसे यदि कोई यह निष्कर्ष निकाले कि ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्योंके समान सच्छूद्र और असच्छद्र भी देवपूजा आदि छह कर्मोको कर सकते हैं तो हमें कोई अत्युक्ति नहीं प्रतीत होती / पण्डितप्रवर आशाधरजीके अभिप्रायानुसार अधिकसे अधिक यही कहा जा सकता है कि वे 'असच्छूद्र गृहस्थ मुनियोंको आहार दे' मात्र इस बातके विरोधी रहे हैं, असच्छूद्रोंके द्वारा देवपूजा आदि कर्मों के किये जानेके नहीं। चारित्रसारका भी यही अभिप्राय है, क्योंकि उसके कर्ताने इन कार्योंका अधिकारी शूद्रको भी माना है। यह महापुराणके उत्तरकालवर्ती प्रमुख साहित्यकी स्थिति है जो गृहस्थोंकी प्राचारपरम्परामें वर्णव्यवस्थाको स्वीकार करके भी किसी न किसी रूपमें आगमपरम्पराका ही समर्थन करती है। इस मामलेमें महापुराणका पूरी तरहसे साथ देनेवाला यदि कोई ग्रन्थ हमारी दृष्टिमें आया है तो वह एकमात्र दानशासन ही है। परन्तु यह ग्रन्थ बहुत ही अर्वाचीन है। सम्भव है कि इस विचारका समर्थन करनेवाले भट्टारकयुगीन और भी एक-दो ग्रन्थ हों। जो कुछ भी हो, इतना स्पष्ट है कि आचार्य जिनसेनने भरत चक्रवर्ती के नाम पर मनुस्मृतिधर्मको जैनधर्म बतलाकर आगमधर्मको गौण करनेका जो भी प्रयत्न किया है उसमें बे पूरी तरहसे सफल नहीं हो सके हैं इसमें रञ्चमात्र भी सन्देह नहीं है। प्राचीन आवश्यककोका निर्णय अब देखना यह है कि महापुराणमें या इसके उत्तरकालवर्ती साहित्यमें मौलिक हेर-फेरके साथ गृहस्थोंके जिन आवश्यक कर्मोंका उल्लेख कियाँ गया है उनका आचार परम्परामें स्वीकार किये गये प्राचीन आवश्यक कर्मोंके साथ कहाँ तक मेल खाता है; यह तो स्पष्ट है कि प्राचीन साहित्यमें
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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