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________________ आवश्यक षट्कर्म मीमांसा 271 आगम साहित्यसे तो होता नहीं। महापुराणका पूर्वकालवर्ती जितना साहित्य है उससे भी इसका समर्थन नहीं होता यह भी स्पष्ट है, क्योंकि उसमें इस प्रकारसे छह कर्मोंका विभाग नहीं दिखाई देता। जो महापुराणका उत्तरकालवर्ती साहित्य है उसकी स्थिति भी बहुत कुछ अंश में महापुराणके मन्तव्योंसे भिन्न है। उदाहरणस्वरूप हम यहाँपर सागारधर्मामृतके एक उल्लेखको उपस्थित कर देना आवश्यक मानते हैं। वह उल्लेख इस प्रकार है नित्याष्टान्हिकसच्चतुर्मुखमहः कल्पद्रुमैन्द्रध्वजाविज्याः पात्रसमक्रियान्वयदयादत्तोस्तपःसंयमान् / स्वाध्यायं च विधातुमादृतकृषीसेवावणिज्यादिकः शुद्धयाप्तोदितया गृही मललवं पक्षादिभिश्व क्षिपेत् // 1-18 // महापुराणमें इज्या आदि छह कर्म स्वीकार किये गये हैं उन्हीं छह कर्मोंका उल्लेख पण्डितप्रवर आशाधरजीने सागरधर्मामृतके उक्त श्लोक में किया है। अन्तर केवल इतना है कि आचार्य जिनसेन वार्तापदसे असि, मषि, कृषि और वाणिज्य मात्र इन चार कर्मोंको स्वीकार करते हैं जब कि पण्डितप्रवर आशाधरजी इनके स्थानमें सेवा, विद्या और शिल्प के साथ सब कर्मोंको स्वीकार करते हैं। इसका तात्पर्य यह है कि जहाँ आचार्य जिनसेन केवल तीन वर्णके,मनुष्योंको पूजा आदिका अधिकारी मानते हैं वहाँ पण्डितप्रवर आशाधरजी चारों वर्णके मनुष्योंको उनका अधिकारी मानते हैं। पण्डितजीने अनगारधर्मामृतकी टीकामें ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और सच्छूद्र इन चारको मुनिके आहारके लिए अधिकारी लिखा है / इससे भी यही सिद्ध होता है कि ब्राह्मणादि तीन वर्णके मनुष्यों के समान शूद्रवर्णके मनुष्य भी जिनेन्द्रदेवकी पूजा कर सकते हैं और मुनियोंको आहार दे सकते हैं। साथ ही वे स्वाध्याय, संयम और तप इन कोको करनेके भी अधिकारी हैं / यहाँ पर यह स्मरणीय है कि महापुराण के उत्तरकालवर्ती छोटे बड़े प्रायः जितने भी साहित्यकार हुए हैं उन
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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