________________ जिनमन्दिर प्रवेश मीमांसा 265 आचारानवद्यत्वं शुचिरुपस्करः शारीरी च विशुद्धिः करोति शूद्रमपि देवद्विजतपस्विपरिकर्मसु योग्यम् / तात्पर्य यह है कि जिस शूद्रका आचार निर्दोष है तथा घर, पात्र और शरीर शुद्ध है वह देव, द्विज और तपस्वियोंकी भक्ति पूजा श्रादि कर सकता है। नीतिवाक्यामृतके टीकाकार एक अजैन विद्वान् हैं। उन्होंने भी उक्त वचनको टीका करते हुए एक श्लोक उद्धृत किया है। श्लोक इस प्रकार है गृहपात्राणि शुद्धानि व्यवहारः सुनिर्मलः / ___ कायशुद्धिः करोत्येव योग्यं देवादिपूजने // श्लोकका अर्थ वही है जो नीतिवाक्यामृतके वचनका कर आये हैं / इस प्रकार सोमदेवसूरिके सामने यह विचार उपस्थित होने पर कि शूद्र जिनमन्दिर में जाकर देवपूजा आदि कार्य कर सकता है या नहीं, उन्होंने अपना निश्चित मत बनाकर यह सम्मति दी थी कि यदि उसका व्यवहार सरल है और उसका घर, वस्त्र तथा शरीर आदि शुद्ध है तो वह मन्दिरमें जाकर देवपूजा आदि कार्य कर सकता है / ___ यहाँ पर इतना स्पष्टं जान लेना चाहिए कि सोमदेवसूरिने इस प्रश्नको धार्मिक दृष्टिकोणसे स्पर्श न करके ही यह समाधान किया है, क्योंकि धार्मिक दृष्टि से देवपूजा आदि कार्य कौन करे यह प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता। कारण कि कोई मनुष्य ऊपरसे चाहे पवित्र हो और चाहे अपवित्र हो वह पञ्चपरमेष्ठीकी भक्ति, विनय और पूजा करनेका अधिकारी है / यदि किसीने पञ्चपरमेष्ठीकी भक्ति, विनय और पूजा की है तो वह भीतर और बाहर सब तरफसे शुद्ध है और नहीं की है तो वह न तो भीतरसे शुद्ध है और न बाहरसे ही शुद्ध है। हम भगवद्भक्ति या पूजाके प्रारम्भमें 'अपवित्रः पवित्रो वा' इस आशयके दो श्लोक पढ़ते हैं वे केवल पाठमात्रके लिए नहीं पढ़े जाते हैं / स्पष्ट है कि धार्मिक दृष्टिकोण इससे भिन्न है। वह न