________________ 264 वर्ण, जाति और धर्म करता है। वे पुरुष जिन्होंने जीवन भर हिंसादि कर्म करके अपनी आजीविका नहीं की है सबके लिए आदर्श और वन्दनीय तो हैं ही। किन्तु जो पुरुष प्रारम्भमें हिंसाकि कर्म करके अपनी आजीविका करते हैं और अन्तमें उससे विरक्त हो मोक्षमार्गके पथिक बनते हैं वे भी सबके लिए आदर्श और वन्दनीय हैं। अन्य प्रमाण__ इस प्रकार हरिवंशपुराणके आधारसे यह ज्ञात हो जाने पर भी कि चाण्डालसे लेकर ब्राह्मण तक प्रत्येक मनुष्य जिन मन्दिर में प्रवेश कर जिन पूजा आदि धार्मिक कृत्य करनेके अधिकारी हैं, यह जान लेना आवश्यक है कि क्या मात्र हरिवंशपुराणके उक्त उल्लेखसे इसकी पुष्टि होती है या कुछ अन्य प्रमाण भी उपलब्ध होते हैं जो इसकी पुष्टि में सहायक माने जा सकते हैं। यह तो स्पष्ट है कि महापुराणकी रचनाके पूर्व किसीके सामने इस प्रकारका प्रश्न हो उपस्थित नहीं हुआ था, इसलिए महापुराणके पूर्ववर्ती किसी प्राचार्यने इस दृष्टि से विचार भी नहीं किया है। शूद्र सम्यग्दर्शनपूर्वक श्रावक धर्मको तो स्वीकार करे किन्तु वह जिनमन्दिरमें प्रवेश कर जिनेन्द्रदेवकी पूजन-स्तुति न कर सके यह बात बुद्धिग्राह्य तो नहीं है / फिर भी जब महापुराणके कर्ता आचार्य जिनसेनने जैनधर्मको वर्णाश्रमधर्मके साँचे ढालकर यह विधान किया कि इज्यादि षट्कर्म करनेका अधिकार एकमात्र तीन वर्णके मनुष्यको है, शूद्रको नहीं तब उत्तरकालीन कतिपय लेखकोंको इस विषय पर विशेष ध्यान देकर कुछ न कुछ अपना मत बनाना ही पड़ा है / उत्तरकालीन साहित्यकारोंमें इस विषयको लेकर जो दो मत दिखलाई देते हैं उसका कारण यही है। सन्तोषकी बात इतनी ही है कि उनमें से अधिकतर साहित्यकारोंने देवपूजा आदि धर्मिक कार्योंको तीन वर्णके कर्तव्योंमें परिगणित न करके श्रावक धर्मके कार्योंमें ही परिगणित किया है और इस तरह उन्होंने प्राचार्य जिनसेनके कथनके प्रति अपनी असहमति ही व्यक्त की है। सोमदेवसूरि नीतिवान्यामृतमें कहते हैं