SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 265
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ - जिनमन्दिर प्रवेश मीमांसा 263 यह हरिवंशपुराणका उल्लेख है। इसमें ऐसे विद्याधर निकायोंको भी चस्वा की गई है जो आर्य होनेके साथ-साथ सभ्य मनुष्योचित उचित वेषभूषाको धारण किये हुए थे और ऐसे विद्याधर निकायोंकी भी चरचा को गई है जो अनार्य होनेके साथ-साथ चाण्डाल कर्मसे भी अपनी आजीविका करते थे तथा हड्डियों और चमड़ों तकके वस्त्राभूषण पहिने हुए थे। यह तो स्पष्ट है कि विद्याधर लोकमें सदा कर्मभूमि रहती है, इसलिए वहाँके निवासी असि आदि षट्कर्मसे अपनी आजीविका तो करते ही हैं। साथ ही उनमें कुछ ऐसे विद्याधर भी होते हैं जो श्मशान आदिमें शवदाह आदि करके, मरे हुए पशुओंकी खाल उतारकर और हड्डियोंका व्यापार करके तथा इसी प्रकारके और भी निकृष्ट कार्य करके अपनी आजीविका करते हैं। इतना सब होते हुए भी वे दूसरे विद्याधरोंके साथ जिनमन्दिरमें जाते हैं, मिलकर पूजा करते हैं और अपने-अपने मुखियोंके साथ बैठकर परस्परमें धर्मचर्चा करते हैं / यह सब क्या है ? क्या इससे यह सूचित नहीं होता कि किसी भी प्रकारकी आजीविका करनेवाला तथा निकृष्टसे निकृष्ट वस्त्राभूषण पहिननेवाला व्यक्ति भी मोक्षमार्गके अनुरूप धार्मिक प्राथमिक कृत्य करनेमें आजाद है। उसकी जाति और वेशभूषा उसमें बाधक नहीं होती / जिन आचार्योंने सम्यग्दर्शनको धर्मका, मूल कहा है और यह कहा है कि जो त्रस और स्थावरवधसे विस्त न होकर भी जिनोक्त आज्ञाका श्रद्धान करता है वह सम्यग्दृष्टि है उनके उस कथनका एकमात्र यही अभिप्राय है कि केवल किसी व्यक्तिको आजीविका, वेश-भूषा और जातिके आधारपर उसे धर्मका आचरण करनेसे नहीं रोका जा सकता / यह दूसरी बात है कि वह आगे-आगे जिस प्रकार व्रत, नियम और यमको स्वीकार करता जाता है उसी प्रकार उत्तरोत्तर उसका हिंसाकर्म छूटकर विशुद्ध आजीविका होतो जातो ' है, तथा अन्तमें वह स्वयं पाणिपात्रभोजी बनकर पूरी तरहसे आत्मकल्याण करने लगता है और अन्य प्राणियोंको आत्मकल्याण करनेका मार्ग प्रशस्त
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy