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________________ 266 वर्ण, जाति और धर्म तो व्यक्तिके कर्मको देखता है और न उसकी बाहिरी पवित्रता और अपवित्रताको ही देखता है। यदि वह देखता है तो एकमात्र व्यक्तिकी श्रद्धाको जिसमेंसे भक्ति, विनय, पूजा और दान आदि सब धार्मिक कर्म उद्भूत होते हैं। प्राचार्य अमितिगतिने इस सत्यको हृदयंगम किया था। तभी तो उन्होंने प्राचार्य जिनसेन द्वारा प्ररूपित छह कर्मोंमेंसे वार्ताके स्थानमें गुरूपास्ति रखकर यह सूचित किया कि ये तीन वर्णके कार्य न होकर गृहस्थोंके कर्तव्य हैं। उन्होंने ग्रहस्थके जिन छह कर्मोंकी सूचना : दी है वे हैं देवपूजा गुरूपास्तिः स्वाध्यायः संयमस्तपः / दानं चेति गृहस्थानां षट्कर्माणि दिने दिने / पण्डितप्रवर आशाधरजीने अपने सागारधर्मामृत, (अध्याय 1 श्लो० 18 ) में इस प्रकारका संशोधन तो नहीं किया है। उन्होंने वार्ता के स्थानमें उसे ही रहने दिया है। परन्तु उसे रखकर भी वे उससे केवल असि, मषि, कृषि, और वाणिज्य इन चार कर्मोंसे आजीविका करनेवालोंको ग्रहण न कर सेवाके साथ छहों कर्मों से अपनी आजीविका करनेवालोंको स्वीकार कर लेते हैं। और इस प्रकार इस संशोधन द्वारा बे भी यह सूचित करते हैं कि देवपूजा आदि कार्य तीन वर्णके कर्तव्य न होकर गृहस्थधर्मके कर्तव्य हैं। फिर चाहे वह गृहस्थ किसी भी कर्मसे अपनी आजीविका क्यों न करता हो / इस प्रकार हम देखते हैं कि उत्तरकालवर्ती जितने भी साहित्यकार हुए हैं, प्रायः उन्होंने भी यही स्वीकार किया है कि जिनमन्दिरमें जाकर देवपूजा आदि कार्य जिस प्रकार ब्राह्मण आदि तीन वर्णका गृहस्थ कर सकता है उसी प्रकार चाण्डाल आदि शूद्र गृहस्थ भी कर सकता है। आगममें इससे किसी प्रकारकी बाधा नहीं आती। और यदि किसीने कुछ प्रतिबन्ध लगाया भी है तो उसे सामयिक परिस्थितिको ध्यानमें रखकर सामाजिक ही समझना चाहिए / आगमकी मनसा इस प्रकारकी नहीं है यह सुनिश्चित है।
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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