________________ 260 वर्ण, जाति और धर्म लगें तब चाहे दासी-दास हों या अन्य कोई सबको समान भावसे नागरिक समझें और धर्ममें उच्चसे उच्च नागरिकका जो अधिकार है वही अधिकार सबका माने यह भी उसका तात्पर्य है। प्राचीन कालमें जो नागरिक सामाजिक अपराध करते थे उनमेंसे अधिकतर दण्डके भयसे घर छोड़कर धर्मकी शरणमें चले जाते थे यह प्रथा प्रचलित थी। ऐसे व्यक्तियोंको या तो बौद्धधर्ममें शरण मिलती थी या जैनधर्ममें / बुद्धदेवके सामने इस प्रकारका प्रश्न उपस्थित होने पर उत्तरकालमें उन्होंने तो यह व्यवस्था दी कि यदि कोई सैनिक सेनामें से भाग अावे या कोई सामाजिक अपराध करनेके बाद धर्मकी शरणमें आया हो तो उसे बुद्वधर्ममें दीक्षित न किया जाय, परन्तु जैनधर्मने व्यक्तिके इस नागरिक अधिकार पर भूलकर भी प्रतिबन्ध नहीं लगाया है। इसका कारण यह नहीं है कि वह दोषको प्रश्रय देना चाहता है। यदि कोई इस परसे ऐसा निष्कर्ष निकाले भी तो यह उसकी सबसे बड़ी भूल होगी। वृक्षको काटनेवाला व्यक्ति यदि अातपसे अपनी रक्षा करनेके लिए उसी वृक्षकी छायाकी' शरण लेता है तो यह वृक्षका दोष नहीं माना जा सकता। ठीक यही स्थिति धर्मकी है / काम, क्रोध, मद, मात्सर्य और मिथ्यात्वके कारण पराधीन हुए जितने भी संसारी प्राणी हैं वे सब धर्मकी जड़ काटनेमें लगे हुए हैं। जो तथाकथित शूद्र हैं वे तो इस दोषसे बरी माने ही नहीं जाते, लौकिक दृष्टिसे जो उच्चवर्णी मनुष्य हैं वे भी इस दोषसे बरी नहीं हैं, तीर्थङ्करोंने व्यक्तिके जीवनमें वास करनेवाले इस अन्तरङ्ग मलको देखा था / फलस्वरूप उन्होंने उसीको दूर करनेका उपाय बतलाया था। शरीर और वस्त्रादिमें लगे हुए बाह्यमलका शोधन तो पानी, धूप, हवा और साबुन आदिसे भी हो जाता है। परन्तु अात्मामें लगे हुए उस अन्तरङ्ग मलको धोनेका यदि कोई उपाय है तो वह एकमात्र धर्म ही है। ऐसी अवस्थामें कोई तीर्थङ्कर यह कहे कि हम इस व्यक्तिके अन्तरङ्ग मलको धोनेसे लिए इस व्यक्तिको तो अपनी शरणमें आने देंगे और इस व्यक्तिको नहीं आने देंगे यह नहीं हो