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________________ जिनमन्दिर प्रवेश मीमांसा 256 गया था। किन्तु यह ज्ञात होने पर कि इससे न केवल दूसरोंके नैसर्गिक अधिकारका अपहरण होता है, अपितु धर्मका भी घात होता है, यह बन्धन उठा लिया गया है। इसी प्रकार शूद्र मन्दिरमें नहीं जा सकते यह भी सामाजिक बन्धन है, योग्यतामूलक धार्मिक विधि नहीं / इसका तात्पर्य यह है कि आगमके अनुसार तो सबके लिए समवसरणके प्रतीकरूप जिनमन्दिरका द्वार खुला हुआ है। वह न कभी बन्द होता है और न कभी बन्द किया जा सकता है, क्योंकि जिनमन्दिर में जाकर और जिनदेवके दर्शनकर अन्य मनुष्यों और तिर्यञ्चोंके समान वे भी जिनदेवके दर्शन द्वारा श्रात्मानुभूति कर सकते हैं। यही कारण है कि आगममें कहीं भी शूद्रोंके मन्दिर प्रवेश निषेधरूप वचन नहीं मिलता। वैदिक परम्परामें शूद्रोंको धर्माधिकारसे वञ्चित क्यों किया गया है इसका एक कारण है / बात यह है कि पार्योंके भारतवर्षमें आनेपर यहाँके मनुष्योंको जीतकर जिन्हें उन्होंने दास बनाया था उन्हें ही उन्होंने शूद्र शब्द द्वारा सम्बोधित किया था। वे आर्योंकी बराबरीसे सामाजिक अधिकार प्राप्त न कर सकें, इसलिए उन्हें धर्माधिकार ( सामाजिक धर्माधिकार ) से वञ्चित किया गया था।' किन्तु जैनधर्म न तो सामाजिक धर्म है और न ही इसका दृष्टिकोण किसीको दासभावसे स्वीकार करनेका ही है / यद्यपि तत्त्वार्थसूत्रमें परिग्रहपरिमाणव्रतका निर्देश करनेके प्रसङ्गसे दास और दासी ये शब्द आये हैं और इस व्रतमें उनका परिमाण करनेकी भी बात कही गई है। किन्तु उसका तात्पर्य किसीको दास-दासी बनानेका नहीं है। जो मनुष्य पहले दास-दासी रखे हुए थे वे जैन उपासककी दीक्षा लेते समय परिग्रहके समान उनका भी परिमाण कर लें और शेषको दास-दासीके कार्यसे मुक्त कर नागरिकताके पूरे अधिकार दे दें। साथ ही वे ही गृहस्थ जब समस्त परिग्रहका त्याग करें या परिग्रहत्याग प्रतिमा पर आरोहण करने 1. देखी मनुस्मृति अ० 4 श्लोक 80 आदि /
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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