________________ 256 वर्ण, जाति और धर्म ... पुरुष भीतर प्रवेश करते हैं। तथा पापशील विकारयुक्त शूद्रतुल्य पाखण्डी धूर्त पुरुष, तथा विकलाङ्ग, विकलेन्द्रिय और भ्रमिष्ठ जीव उसके बाहर ही घूमते रहते हैं। अब विचार इस बातका करना है कि क्या उक्त उल्लेखमें आया हुआ शूद्र शब्द शूद्र जातिका वाचक है या इसका कोई दूसरा अर्थ है ? अन्य प्रमाणोंके आधारसे यह तो हम पहले ही बतला आये हैं कि समवसरणमें मुख्यरूपसे मिथ्यदृष्टि और असंज्ञी ये दो प्रकारके जीव नहीं पाये जाते। अभव्योंका मिथ्यादृष्टियोंमें ही अन्तर्भाव हो जाता है / तथा विकलाङ्ग और विकलेन्द्रियोंका असंज्ञियोंमें अन्तर्भाव हो जाता है / यदि इस दृष्टि से उक्त उल्लेख पर दृष्टिपात करते हैं तो इससे भी वही पूर्वोक्त अर्थ फलित होता हुआ प्रतीत होता है। यहाँ 'पापशीला विकुर्माणाः' इत्यादि श्लोकके पूर्वार्ध द्वारा मिथ्यादृष्टियोंका ग्रहण किया है / तथा इसी श्लोकके उत्तरार्धमें आये हुए 'विकलाङ्गेन्द्रिय', पद द्वारा असंज्ञियोंका ग्रहण किया है और 'उद्भ्रान्त' पद द्वारा संशयालु, अनध्यवसित और विपर्यस्त जीवोंका ग्रहण किया है। इसलिए इस श्लोकमें आया हुआ 'शूद्र' शब्द जातिविशेषका वाची न होकर 'पापशीला विकुर्माणाः' इन पदोंके समान ही 'पाखण्डपाण्डवाः' इस पदका विशेषण जान पड़ता है। तात्पर्य यह है कि लोकमें शूद्र निकृष्ट माने जाते हैं, इसलिए इस तथ्यको ध्यानमें रखकर ही यहाँ पर आचार्य जिनसेनने पाखण्डपाण्डवोंको शूद्र कहा है। यहाँ पर यह स्मरणीय है कि 'पाखण्डपाण्डव' इस पद द्वारा प्राचार्य जिनसेन मुख्य रूपसे क्रियाकाण्डी अन्य लोगोंकी ओर ही संकेत कर रहे हैं। 'पापशीला विकुर्माणाः' ये दो विशेषण भी उन्हींको लक्ष्यमें रखकर दिये गये हैं, इसलिए उनके लिए दिये गये शूद्र विशेषणकी और भी सार्थकता बढ़ जाती है। यदि ऐसा न मानकर इस श्लोकमें आये हुए प्रत्येक पदको स्वतन्त्र रखा जाता है तो उसकी विशेष सार्थकता नहीं रह जाती। और प्रकृतमें यह अर्थ करना सर्वथा उपयुक्त भी है, क्योंकि चिर