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________________ समवसरणप्रवेश मीमांसा 255 बाद बैठनेका क्रम क्या है इसका स्पष्टीकरण करते हुए जैन-साहित्यमें * बतलाया है कि तीर्थङ्कर जिनकी गन्धकुटीके चारों ओर जो बारह कोठे होते हैं उनमें पूर्व या उत्तर दिशासे प्रारम्भ होकर प्रदक्षिणा क्रमसे पहले कोठेमें गणधर और मुनिजन बैठते हैं। दूसरे कोठेमें कल्पवासिनी देवियाँ बैठती हैं, तीसरे कोठेमें आर्यिकाएँ और मनुष्य स्त्रियाँ बैठती हैं, चौथे कोठेमें भवनवासिनी देवियाँ बैठती हैं, पाँचवें कोठेमें व्यन्तरदेवियाँ बैठती हैं, छठे कोठेमें ज्योतिषीदेवियाँ बैठती हैं, सातवें कोठेमें भवनवासी देव बैठते हैं, आठवें कोठेमें व्यन्तर देव बैठते हैं, नौवें कोठेमें ज्योतिषी देव बैठते हैं, दसवें कोठेमें कल्पवासी देव बैठते हैं, ग्यारहवें कोठेमें मनुष्य बैठते हैं और बारहवें कोठेमें पशु बैठते हैं / इस प्रकार वहाँ पर सब प्रकारके देव, सब प्रकारके मनुष्य और सब प्रकारके पशुत्रोंको प्रवेश मिलता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है / हरिवंशपुराणके एक उल्लेखका अर्थ ऐसी स्थिति के होते हुए भी कुछ विवेचक हरिवंशपुराणके एक उल्लेखके आधार पर यह कहते हैं कि समवसरणमें शूद्रोंका प्रवेश निषिद्ध है। उल्लेख इस प्रकार है तत्र बाह्य परित्यज्य वाहनादिपरिच्छदम् / विशिष्टकाकुदैर्युक्ता मानपीठं परीत्य ते // 57-171 // प्रादक्षिण्येन वन्दित्वा मानस्तम्भमनादितः।। उत्तमाः प्रविशन्त्यन्तरुत्तमाहितभक्तयः // 57-172 // पापशीला विकुर्माणाः शूद्राः पाखण्डपाण्डवाः / ... विकलाङ्गेन्द्रियोद्धान्ता परियन्ति बहिस्ततः // 57-173 / / तात्पर्य यह है कि समवसरणके प्राप्त होने पर वाहन आदि सामग्रीको बाहर ही छोड़कर और विशिष्ट चिह्नोंसे युक्त होकर सर्व प्रथम मानपीठकी प्रदक्षिणाक्रमसे अनादि मानस्तम्भकी वन्दना कर उत्तम भक्तियुक्त उत्तम
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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