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________________ 254 वण, जाति और धर्म वहाँकी नहीं है। वहाँ कोई रोकनेवाला ही नहीं होता। स्वेच्छासे कौन व्यक्ति वहाँ जाते हैं और कौन नहीं जा सकते इसका विचार जैन-साहित्यमें किया गया है, इसलिए यहाँ पर उसका स्पष्टीकरण कर देना आवश्यक प्रतीत होता है। त्रिलोकप्रज्ञप्तिमें वहाँ नहीं जानेवालोंका निर्देश करते हुए कहा गया है कि जो मिथ्यादृष्टि हैं, अभव्य हैं, असंज्ञी हैं, अनध्यवसित हैं, संशयालु हैं और विपरीत श्रद्धावाले हैं ऐसे जीव. समवसरणमें नहीं पाथे जाते।' इसका तात्पर्य यह नहीं है कि ऐसे जीवोंको वहाँ जानेसे कोई रोकता है। किन्तु इसका इतना ही तात्पर्य है कि असंज्ञी जीवोंके मन नहीं होता, इसलिए उनमें धर्मश्रवणकी पात्रता नहीं होनेसे वे वहाँ नहीं जाते / अभव्योंमें धर्माधर्मका विवेक करनेकी और धर्मको ग्रहण करनेकी पात्रता नहीं होती, इसलिए ये स्वभावसे वहाँ नहीं जाते। अब रहे शेष संज्ञी पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त होकर भी मिथ्यादृष्टि आदि जीव सो एक तो ऐसा नियम है कि जो उस समवसरण भूमिमें प्रवेश करते हैं उनका मिथ्यात्वभाव स्वयमेव पलायमान हो जाता है, इसलिए यहाँ पर यह कहा गया है कि वहाँ पर मिथ्यादृष्टि जीव नहीं पाये जाते / दूसरे जो तीव्र मिथ्यादृष्टि होते हैं उन्हें कुतूहलवश भी मोक्षमार्गका उपदेश सुननेका भाव नहीं होता; इसलिए वे समवसरणमें आते ही नहीं। इतना ही नहीं, वे अपने तीव्र मिथ्यात्वके कारण वहाँ आनेवाले दूसरे लोगोंको भी वहाँ जानेसे मना करते हैं, इसलिए भी मिथ्यादृष्टि जीव वहाँ नहीं पाये जाते यह कहा गया है। अब रहे अनध्यवसित चित्तवाले, संशयालु और विपरीत बुद्धिवाले जीव सो ये सब जीव भी मिथ्यादृष्टि ही माने गये हैं, क्योंकि मिथ्यादृष्टियों के पाँच भेदोंमें उनका अन्तर्भाव हो जाता है, इसलिए ऐसे जीव भी वहाँ नहीं पाये जाते। इसके सिवा इतना और समझ लेना चाहिए कि क्षेत्रदिके व्यवधानके कारण जो जीव वहाँ नहीं आ सकते ऐसे जीव भी वहाँ नहीं पाये जाते / इनके सिवा शेष जितने देव, मनुष्य और पशु होते. हैं वे सत्र वहाँ आकर धर्मश्रवण करते हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है। वहाँ आनेके
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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