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________________ समवसरणप्रवेश मीमांसा 253 उपदेश सुन सकें। इसके बीचों बीच एक गन्धकुटी होती है जिसके 'मध्यस्थित सिंहासनका ऊपरी भाग स्वर्णमयी दिव्य कमलसे सुसजित किया जाता है। तीर्थङ्कर जिन इसीके ऊपर अन्तरीक्ष विराजमान होकर गन्धकुटीके चारों ओर बैठे हुए चारों निकायोंके देव, उनकी देवियाँ, तिर्यञ्च और मनुष्य, उनकी स्त्रियाँ तथा संयत और आर्यिका इन सबको समान भावसे मोक्षमार्गका और उससे सम्बन्ध रखनेवाले सात तत्त्व, छह द्रव्य, 'नौ पदार्थ, आठ कर्म, उनके कारण, चौदह मार्गणाएँ, चौदह गुणस्थान और चौदह जीवसमासोंका उपदेश देते हैं। यह एक ऐसी धर्मसभा है जिसकी तुलना लोकमें अन्य किसी सभासे नहीं की जा सकती। यह स्वयं उपमान है और यही स्वयं उपमेय है। इसके सिवा एक धर्मसभा और होती है जिसे गन्धकुटी कहते हैं। यह सामान्य केवलियोंके निमित्तसे निर्मित होती है। इन दोनों धर्मसभाओंकी रचना इन्द्रकी आज्ञासे कुबेर करता है। इनमें आनेवालोंके प्रति किसी प्रकारका भेदभाव नहीं बरता जाता / समानताके आधार पर सबको अपने अपने कोठोंमें बैठनेके लिए स्थान सुरक्षित रहता है। लोकमें प्रसिद्धिप्राप्त जीवोंको बैठने के लिए सब प्रकारकी सुविधासे सम्पन्न उत्तम स्थान मिलता हो और दूसरोंको पीछे धकेल दिया जाता हो ऐसी व्यवस्था यहाँकी नहीं है। देव, दानव, मनुष्य और पशु सब बराबरीसे बैठकर धर्मश्रवणके अधिकारी हैं यह यहाँका मुख्य नियम है। समानताके आधार पर की गई व्यवस्था द्वारा यह स्वयं प्रत्येक प्राणीके मनमें वीतरागभावको जागृत करनेमें सहायक है, इसलिए इसकी समवसरण संज्ञा सार्थक है / समवसरणमें प्रवेश पानेके अधिकारी साधारण रूपसे पहले हम यह निर्देश कर आये हैं कि उस धर्मसेभामें देव, मनुष्य और तिर्यञ्च सबको प्रवेश कर धर्म सुननेका अधिकार है। धर्मश्रवणकी इच्छासे वहाँ प्रवेश करनेवालेको कोई रोके ऐसी व्यवस्था
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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