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________________ 252 ____ वर्ण, जाति और धर्म वही मात्र दानादि कर्मों का अधिकारी है शूद्र नहीं, और आचार्य वसुनन्दि उपनयन संस्कारके पक्षपाती नहीं जान पड़ते, इसलिए उन्होंने व्वाकरणादि ग्रन्थोंके आश्रयसे और सबको तो उसका अधिकारी माना, मात्र अस्पृश्य शूद्रोंको वह अधिकार नहीं दिया। यशस्तिलकचम्पू और अनगारधर्मामृत में हमें क्रमशः इन्हीं दो धाराओंका स्पष्टतः दर्शन होता है। अनगारधर्मामृतका उत्तरकालवर्ती जितना साहित्य है वह एक तो उतना प्रौढ़ नहीं है जिसके आधारसे यहाँ पर स्वतन्त्ररूपसे विचार किया जाय। दूसरे जो कुछ भी है वह इस या उस रूपमें प्रायः यशस्तिलकचम्पू और अनगारधर्मामृतका ही अनुसरण करता है। जो कुछ भी हो, इतना स्पष्ट है कि जैनधर्ममें जातिवादके प्रवेश होनेके पूर्व काल तक अमुक जातिवाला दान देनेके योग्य नहीं है इस प्रकारको व्यवस्था न होकर कर्मके श्राधार पर इसका विचार किया जाता था। यदि किसी ब्राह्मणके घरमें मांस पकाया जाता था तो साधु उसके घरको अभोज्यगृह समझ कर आहार नहीं लेते थे और किसी शूद्रके घर मांस नहीं पकाया जाता था या वह हिंसाबहुल आजीविका नहीं करता था तो भोज्यगृह समझ कर अागमविधिसे उसके यहाँ आहार ले लेते थे यह उक्त कथनका तात्पर्य है। और यह ठीक भी है, क्योंकि मोक्षमार्गमें जातिवादको स्थान मिलना सर्वथा असम्भव है। समवसरणप्रवेश मीमांसा समवसरण धर्मसभा है समवसरण धर्मसभाका दूसरा नाम है। इसका अन्तःप्रदेश इस पद्धतिसे बारह भागोंमें विभाजित किया जाता है जिससे उनमें बैठे हुए भव्य जीव निकटसे भगवान् तीर्थङ्कर जिनका दर्शन कर सके और उनका
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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