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________________ आहारग्रहण मीमांसा 251 मूलाचार मूलमें वह भाव न होते हुए भी वसुनन्दि प्राचार्यने उसकी टीका में जिस तत्त्वका प्रवेश किया है उसे तो सोमदेव सूरिने मान्य रखा ही। साथ ही वे यह भी स्वीकार करते हैं कि जो कदर्य हैं, अबती हैं, दीन हैं, करुणाके पात्र हैं, पतित हैं, शिल्पकर्म और कारुकर्मसे अपनी आजीविका करते हैं, भाट हैं और जो कुटनीके कर्ममें रत हैं उनके यहाँ भी साधु भोजन न करे / सोमदेव सूरिके इस कथनमें मुख्यरूपसे शिल्पकर्म और कारुकर्मसे अपनी आजीविका करनेवालेको साधुको आहार देने के अयोग्य घोषित करना ध्यान देने योग्य है। यद्यपि इनके उत्तरकालवर्ती पण्डितप्रवर श्राशाधरजी केवल उसी तथ्यको स्वीकार करते हुए जान पड़ते हैं जिसे आचार्य वसुनन्दिने मूलाचारकी टोकामें स्वीकार किया है। परन्तु सोमदेवसूरिके उक्त कथनसे ऐसा प्रतीत होता है कि वे स्पृश्यशूद्रको भी दान देनेके अयोग्य मानते रहे हैं। ___इसमें सन्देह नहीं कि उत्तर कालमें कुछ लेखक जिस प्रकारकी लौकिक विधि प्रचलित हुई उसके अनुसार विधि-निषेध करने लगे थे। उदाहरणार्थ सोमदेवसूरि लिखते हैं कि जो अव्रती है उसके हाथसे साधुको आहार नहीं लेना चाहिए। यदि इस दृष्टि से महापुराणका अवलोकन करते हैं तो उसका भाव भी लगभग यही प्रतीत होता है, क्योंकि उसमें जिसका यज्ञोपवीत संस्कार नहीं हुआ है वह दान देनेका अधिकारी नहीं माना गया है। हमारी समझ है कि इसी भावको व्यक्त करने के लिए ही यहाँ पर सोमदेव सूरिने अवती, शिल्पकर्म करनेवाले और कारुकर्म करनेवालेको दान देनेके अधिकारसे वञ्चित किया है। यदि इन तथ्योंके प्रकाशमें हम देखते हैं तो विदित होता है, कि नौवीं दशवीं शताब्दीसे 'जातिके आधार पर दान देने के अधिकारी कोन हैं' इस प्रश्नको लेकर दो धाराएँ चल पड़ी थीं-एक आचार्य जिनसेनके मन्तव्योंकी और दूसरी आचार्य वसुनन्दिके मन्तव्योंकी। आचार्य जिनसेनने यह मत प्रस्थापित किया कि जिसका उपनयन संस्कार हुआ है
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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