SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 252
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 250 वर्ण, जाति और धर्म व्यवहृत होता है उसे भी वह स्वीकार करें। यह न्यायोचित मार्ग है और शाकटायनकारने प्रकृतमें इसी मार्गका अनुसरण किया है। इसका यह अर्थ कदापि नहीं लेना चाहिए कि शाकटायनकारको यह अर्थ अपने धर्मशास्त्रकी दृष्टिसे भी मान्य रहा है, क्योंकि इसका पूर्ववर्ती जितना आगम साहित्य और चरणानुयोगका साहित्य उपलब्ध होता है उसमें जब जातिवादको मोक्षमार्गमें प्रश्रय ही नहीं दिया गया है ऐसी अवस्थामें शाकटायनकार उस अर्थको धर्मशास्त्रकी दृष्टिसे कैसे स्वीकार कर सकते थे ? अर्थात् नहीं कर सकते थे और उन्होंने किया भी नहीं है। हम तो एक मीमांसकके नाते यह भी कहनेका साहस करते हैं कि जैनेन्द्रव्याकरणमें 'वर्णेनाद्रि पायोग्यानाम्' सूत्र भी लौकिक दृष्टिसे ही कहा गया है मोक्षमार्गकी दृष्टिसे नहीं। यदि कोई निष्पक्ष दृष्टिसे विचार करे तो उसकी दृष्टिमें यह बात अनायास आ सकती है कि जैनसाहित्यमें ब्राह्मणादि वर्गों के आश्रयसे जितना भी विधि-विधान किया गया है वह सबका सब लौकिक है और लगभग नौवीं शताब्दीसे प्रारम्भ होता है, इसलिए वह आगम परम्पराका स्थान नहीं ले सकता / किन्तु जब कोई भी वस्तु किसी भी मार्ग से कहीं प्रवेश पा लेती है तो धीरे धीरे वह अपना स्थान भी बना लेती है। जातिवादके सम्बन्धमें भी यही हुआ है / पहले लौकिक दृष्टि से व्याकरण साहित्यमें इसने प्रवेश किया और उसके बाद वह विधिवचन बनकर धर्मशास्त्रमें भी घुस बैठा / इसलिए यदि आचार्य वसुनन्दिने 'अभोज्यगृहप्रवेश' शब्दका अर्थ 'चण्डालादिगृहप्रवेश' किया भी है तो इससे हमें कोई आश्चर्य नहीं होता। साथ ही उनका यह कह कहना कि 'चण्डालादिका स्पर्श होनेपर साधु उस दिन अपने आहारका त्याग कर देते हैं। हमें श्राश्चर्यकारक नहीं प्रतीत होता, क्योंकि इस काल में जातिवादने अपना पूरा स्थान बना लिया था। जो समुदाय इसे स्वीकार किये विना यहाँ टिक सका हो ऐसा हमें ज्ञात नहीं होता। बौद्धधर्मके भारतवर्षसे लुप्त हो जानेका एक कारण उसका जातिवादको स्वीकार न करना भो रहा है। इस प्रकार
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy