________________ आहारग्रहण मीमांसा 246 हम पहले दीक्षाग्रहण मीमांसा प्रकरणमें यह बतला आये हैं कि सर्व .प्रथम पतञ्जलि ऋषिने निरवसित शूद्रोंकी व्याख्या करते हुए यह कहा है कि जिनके द्वारा भोजनादि व्यवहारमें लाये गये पात्र संस्कार करनेसे भी शुद्ध नहीं होते वे निरवसित शूद्र हैं। वहाँ उन्होंने ऐसे शूद्रोंके चण्डाल और मृतप ये दो उदाहरण उपस्थित किये हैं। उसके बाद जैनेन्द्रव्याकरण और उसके टीकाकारोंको छोड़कर पणिनिव्याकरणके अन्य टीकाकारों और शाकटायनकारने भी इसी व्याख्याको मान्य रखा है। यहाँ पर यह स्पष्ट कर देना आवश्यक प्रतीत होता है कि ब्राह्मण धर्मशास्त्रको यह व्याख्या मान्य है, क्योंकि उसमें स्पष्ट कहा गया है कि जब कोई द्विज भोजन कर रहा हो तब उसे चाण्डाल, वराह, कुक्कुट, कुत्ता, रजस्वला स्त्री और नपुंसक न देखें / ' (किन्तु जैनधर्ममें यह कथन मान्य नहीं है। कारण कि जब आदिनाथका जीव पूर्वभवमें बज्रजंघ राजा थे। तब उनके साधु होनेपर उनके आहार लेते समय आहारविधि देखनेवालोंमें एक वराह भी था।) मात्र इसीलिए पतञ्जलि ऋषिने अपने भाष्यमें उस व्याख्याको स्वीकार किया है। इससे यह भी ध्वनित होता है कि उस समय लोकमें ऐसी प्रथा प्रचलित थी कि ब्राह्मण धर्मशास्त्रके अनुसार अन्य जातिवाले चण्डाल और मृतप लोगोंके व्यवहार में लाये गये पात्र अपने उपयोगमें नहीं लाते थे। यही कारण है कि शाकटायनकारने भी उसी लोकरूढिको ध्यानमें रखकर अपने व्याकरण में ऐसे शूद्रोंको अपात्र्यशूद्र कहा है। पर इसका अर्थ यदि कोई यह करे कि शाकटायनकार मोक्षमार्गकी दृष्टिसे भी ऐसे शूद्रोंको अपात्र्यशूद्र मानते रहे हैं तो उसका ऐसा अर्थ करना सर्वथा अनुचित होगा, क्योंकि व्याकरण शास्त्र कोई धर्मशास्त्र नहीं है। वह जिस प्रकार धर्मशास्त्रमें प्रचलित शब्द प्रयोगका वहाँ जो अर्थ लिया जाता है उसे स्वीकार करके चलता है। उसी प्रकार उसका यह काम भी है कि लोकमें जो शब्दप्रयोग जिस अर्थ में 1 मनुस्मृति अध्याय 3 श्लो० 236 /