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________________ 248 वर्ण, जाति और धर्म यदि किसी मनुष्यके द्वारा उनके प्रति जुगुप्साको पैदा करनेवाला अभद्र' व्यवहार किया जाता था तब भी साधु आहारका परित्याग कर देते थे। अन्य साहित्य__ यहाँ तक हमने मूलाचारके अनुसार विचार किया / अब आगे उत्तर- . कालीन साहित्यके आधारसे विचार करते हैं.। उसमें सर्व प्रथम हम श्राचार्य वसुनन्दिकृत मूलाचारको टीकाको ही लेते हैं। इसमें दो स्थल : ऐसे हैं जहाँ चण्डाल शब्द आता है। प्रथम स्थल 'श्रभोज्यगृहप्रवेश' शब्दकी व्याख्याके प्रसङ्गसे आया है। वहाँ पर अभोज्यगृहप्रवेशकी व्याख्या करते हुए उसका अर्थ 'चण्डालादिगृहप्रवेश किया गया है। तथा दूसरा स्थल अन्तरायोंका उपसंहार करते हुए बुद्धिसे अन्य अन्तरायोंके जाननेको सूचनाके प्रसङ्गसे आया है। वहाँ कहा गया है कि चण्डाल श्रादिका स्पर्श होने पर भी मुनिको उस दिन आहारका परित्याग कर देना चाहिए। - यह तो हम मूलाचारके आधारसे स्पष्टीकरण करते समय ही बतला आए हैं कि मूलमें कोई जातिवाची शब्द नहीं आया है। इससे ऐसा मालूम पड़ता है कि न तो प्राचार्य वट्टकेरको किसी जाति विशेषको दान देनेके अयोग्य घोषित करना इष्ट था और न जैनाचारके अनुसार कोई जाति विशेष दान देनेके अयोग्य मानी ही जाती थी। और यह ठीक भी है, क्योंकि जब चण्डाल जैसा निष्कृष्ट कर्म करनेवाले व्यक्तिको धर्मका अधिकारी माना जाता है। ऐसी अवस्थामें उसे अतिथिसंविभाग व्रतका समुचित रीतिसे पालन करनेका अधिकार न हो यह जिनाज्ञा नहीं हो सकती। ऐसी अवस्थाके रहते हुए उत्तर कालमें तथाकथित चण्डाल आदि अस्पृश्य शूद्र दान देनेके अयोग्य घोषित कैसे किये गये यह अवश्य ही विचारणीय हो जाता है / अतएव आगे सर्व प्रथम इसी बातका साङ्गोपाङ्ग विचार किया जाता है।
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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