________________ समवसरणप्रवेश मीमांसा 257 कालसे ब्राह्मणोंका जैनधर्मके प्रति विरोध चला आ रहा है। कोई तीर्थङ्करोंकी शरणमें जाकर जैनधर्ममें दीक्षित हो यह उन्हें कभी भी इष्ट नहीं रहा है। जात्यहंकारसे दूषित चित्तवाले मनुष्य दूसरोंको शूद मानकर उनका अनादर कर सकते हैं। परन्तु समीचीन धर्मसे विमुख होनेके कारण वास्तवमें शूद्र कहलाने के योग्य वे मनुष्य ही हैं, एकमात्र इस अभिप्रायको ध्वनित करनेके लिए प्राचार्य जिनसेनने उन्हें यहाँ शूद्र विशेषण दिया है। यह विशेषण केवल उन्होंने ही दिया हो ऐसी बात नहीं है / आचार्य जिनसेनने महापुराणमें जैन द्विजोंका महत्त्व बतलाते हुए दूसरों के लिए 'कर्मचाण्डाल' शब्द तकका प्रयोग किया है। साहित्यमें और भी ऐसे स्थल मिलेंगे जहाँ पर दूसरों के लिए इस प्रकारके शब्दोंका प्रयोग किया गया है, इसलिए यहाँ पर भी यदि पाखण्डपाण्डवोंको शूद्र कहा गया है तो इसमें कोई अत्युक्ति नहीं दिखाई देती। लिखनेका तात्पर्य यह है कि समवसरणमें अन्य वर्णवाले मनुष्योंके समान शूद्र वर्णके मनुष्य भी जाते हैं। वहाँ उनके जाने में कोई प्रतिबन्ध नहीं है / त्रिलोकप्रशप्ति आदि ग्रन्थोंका भी यही अभिप्राय है। तथा युक्तिसे भी इसी बातका समर्थन होता है, क्योंकि जिस प्रकार हम यह नहीं कह सकते कि सिंह आदि हिंस्र पशु प्रतिदिन दूसरे जीवोंका वध करते हैं और मांस खाते हैं, इसलिए वे समवसरणमें जानेके अधिकारी नहीं हैं उसी प्रकार हम यह भी नहीं मान सकते कि निकृष्ट से निकृष्ट कर्म करनेवाला व्यक्ति भी समवसरणमें जानेका अधिकारी नहीं है / गौतम गणधर समवसरणमें आनेके पूर्व याज्ञिकी हिंसाका समर्थन करते थे। इतना ही नहीं, उस समयके वे प्रधान याज्ञिक होनेके कारण यज्ञमें निष्पन्न हुए मांस तकको स्वीकार करते रहे हों तो इसमें कोई आश्चर्यकी बात नहीं है। फिर भी उनमें पात्रता देख कर इन्द्र स्वयं उन्हें समवसरणमें लेकर आया / इसका पर्व 36 श्लो० 135 /