________________ आहारग्रहण मीमांसा 243 शब्दका प्रयोग इसलिए किया है कि दाताकी प्रवृत्ति देखकर कहीं तो साध को उसका बोध हो जाता है और कहीं नहीं होता। जिनके सम्बन्धमें साधु को ज्ञान नहीं हो सकता उस अपेक्षासे वह दातागत दोष माना जायगा / इसका मुख्यरूपसे दाताको विचार करना पड़ेगा कि मैं ऐसा कौन-सा कर्म करता हूँ जिसे करते हुए मैं साधुको अाहार देनेके लिए अधिकारी नहीं हूँ। यह एक उदाहरण है। इसी प्रकार अन्य दोषोंके विषयमें उनके स्वरूपको देखकर विचार कर लेना चाहिए / देयद्रव्यकी शुद्धि इस प्रकार मूलाचारमें दाता और पात्रके आश्रयसे उत्पन्न होनेवाले टोषोंका विचार करनेके बाद देयके आश्रयसे उत्पन्न होनेवाले दोषोंका अलगसे विचार किया गया है। दाता और पात्रके आश्रयसे जो दोष उत्पन्न होते हैं उनसे देय अपवित्र या द्रव्य विकारी नहीं होता। किन्तु यहाँ पर देय द्रव्यके जो दोष बतलाये जा रहे हैं उनसे या तो वह संसर्ग दोषसे अपवित्र हो जाता है या विकारी हो जाता है, इसलिए उनको मल संज्ञा दी गई है। नख, रोम, मृतकलेवर, हड्डी, कण, कुण्ड, पीप, चमड़ा, रुधिर, मांस, उगने योग्य बीज, फल, कन्द और मूल ये ऐसे पन्द्रह पदार्थ हैं जिनके भोजनमें मिल जाने पर वह अग्राह्य हो जाता है। इनका खुलासा करते हुए टीकाकारने लिखा है कि इनमेंसे कितने ही महामल हैं और कितने ही अल्पमल हैं। तथा कितने हो महादोषकारक हैं और कितने ही अल्पदोषकारक हैं। रुधिर, मांस, हड्डी, चमड़ा और पीप ये महादोषकर हैं / भोजनमें इनके मिल जाने पर पूरे भोजनके त्याग करनेके बाद भी प्रायश्चित्त लेनेकी आवश्यकता पड़ती है / द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवोंका शरीर तथा बालके मिल जाने पर आहारका त्याग कर देना पर्याप्त है / नख के मिल जाने पर अाहारके त्यागके साथ अल्प प्रायश्चित्त लेनेकी आवश्यकता होती है / तथा कण, कुण्ड, बीज, कन्द,