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________________ 244 वर्ण, जाति और धर्म फल और मूलके मिल जाने पर उनको अलग कर भोजन ले लेना चाहिए। यदि वे पदार्थ अलग न किये जा सकें तो भोजनका त्याग कर देना चाहिये। इन मल दोषोंसे रहित साधुके योग्य जो भी आहार है वह उसके लिए ग्राह्य है, अन्य नहीं यह उक्त कथनका तात्पर्य है। बत्तीस अन्तराय___ साधु प्रासुक और अनुद्दिष्ट आहार लेते हैं। प्रासुक होने पर भी यदि वह उद्दिष्ट होता है तो वह साधुके लिए अप्रासुक ही माना गया है / यह आहारमें अमुकको दूंगा ऐसा संकल्प किये बिना गृहस्थ अपनी श्रावश्यकता और इच्छानुसार जो आहार बनाता है वह अनुदिष्ट होनेसे साधुके लिए ग्राह्य माना गया है। यह आहार मेरे लिए बनाया गया है इस अभिप्रायसे यदि साधु भी आहार लेता है तो वह भी महान् दोषकारक माना गया है, क्योंकि ऐसे आहारको ग्रहण करनेसे साधुको,गृहस्थके श्रारम्भजन्य सभी दोषोंका भागी होना पड़ता है। साधु जो भी आहार लेता है वह शरीरकी पुष्टि के लिए न लेकर एकमात्र रत्नत्रयको सिद्धि के लिए लेता है, इसलिए साधु आहारके समय .ऐसे दोषोंका परिहार कर आहार लेता है जिनके होने पर गृहस्थ भी आहारका त्याग कर देता है। ये दोष दाता, पात्र और देय द्रव्यके आश्रयसे न होकर अन्य कारणोंसे होते हैं, इसलिए इनके होने पर साधु अन्तराय मान कर आहार क्रियासे विमुख होता है, इसलिए इनको अन्तराय संज्ञा दी गई है। कुल अंन्तराय बत्तीस हैं / उनके नाम ये हैं—काक, अमेध्य, छर्दि, रुधिर, अश्रुपात, जन्तु जान्वधः स्पर्श, जन्तु जानु उपरिव्यतिक्रम, नाभि अधःनिर्गमन, प्रत्याख्यातसेवन, जन्तुवध, काकादिपिण्डहरण, पाणिपुटसे ग्रासपतन, पाणिपात्रमें आकर जन्तुका वध होना, मांसादिका देखना, उपसर्ग, दोनों पैरोंके मध्यसे पञ्चेन्द्रिय जीवका निकल जाना, दाताके हाथसे भाजनका छूट. कर गिर पड़ना, टट्टीका हो जाना, पेशाबका निकल पड़ना, अभोज्यग्रहमें प्रवेश
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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