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________________ 242 वर्ण, जाति और धम . गया है कि इसे साधर्मियोंसे रहित क्षेत्रमें आचरण करना चाहिए.। यहाँपर दो नियम मुख्यरूपसे ध्यान देने योग्य हैं। प्रथम तो यह कि मुनि-श्राचार के विरुद्ध जीवनमें लगे हुए दोषोंका परिमार्जन करनेके लिए साधु अपने जीवन में प्रायश्चित्तको स्वीकार करता है और दूसरा यह कि पारश्चिक प्रायश्चित्त करते समय साधु अधिकसे अधिक छह माह तकका उपवास कर सकता है। इसके बाद उसे आहार नियमसे लेना पड़ता है और ऐसे . गृहस्थके यहाँ आहार लेना पड़ता है जो साधर्मी नहीं है। फिर भी वह उत्तरोत्तर दोषमुक्त होता जाता है / धवला टीकाका यह इतना स्पष्ट निर्देश है जो हमें इस बातका बोध करानेके लिए पर्याप्त है कि सामान्य अवस्थामें तो. छोडिए प्रायश्चित्तकी अवस्थामें भी साधुको गृहस्थोंका जाति आदिकी दृष्टि से विचार किये बिना सर्वत्र आहार ग्रहण करना चाहिए / ऐसा करनेसे उसका मुनिधर्म दूषित न होकर निखर उठता है। ___ यहाँ यह ध्यान देने योग्य है कि मूलाचार आदिमें पिण्डशुद्धिकी दृष्टिसे जो भी दोष कहे गये हैं उनका विचार मात्र साधुको करना चाहिए ऐसा नहीं है / उद्गम सम्बन्धी जिन दोषोंका सम्बन्ध गृहस्थसे है उनका विचार गृहस्थको करना चाहिए, उत्पादन सम्बन्धी जिन दोषोंका सम्बन्ध साधुसे है उनका विचार साधुको करना चाहिए और एषणासम्बन्धी जिन दोषोंका सम्बन्ध गृहस्थ और साधु दोनोंसे है उनका विचार दोनोंको करना चाहिए / उदाहरणार्थ-नाग और यक्ष आदि देवता, अन्य लिङ्गी और दयाके पात्र मनुष्योंके उद्देश्यसे बनाया गया भोजन औद्देशिक आहार है। गृहस्थका कर्तव्य है कि वह साधुको यह आहार न दे। प्रकृतमें विचारणीय यह है कि इसका विचार कौन करे। जानकारी न होनेसे साधु तो इसका विचार कर नहीं सकता। परिणाम स्वरूप यही फलित होता है कि गृहस्थको इसका विचार करना चाहिए। इसी प्रकार अन्य दोषोंके विषयमें भी परामर्श कर लेना चाहिए। पहले हम विस्तारके साथ दायकदोषकी मीमांसा कर आये हैं। वह भी लगभग इसी प्रकारका एक दोष है। यहाँ पर लगभग
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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