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________________ आहारग्रहण मीमांसा 241 मध्यम और जघन्य घरका विचार किये बिना तथा साधनोंकी दृष्टिसे दरिद्र और साधनबहुल घरका विचार किए बिना निरपेक्षभावसे सर्वत्र आहार ग्रहण करता है। यह उसकी प्रव्रज्याकी विशेषता मानी जाती है कि वह लौकिक दृष्टि से कुलीन या अकुलीन तथा साधनहीन या साधनबहुल जो भी व्यक्ति नवधा भक्तिसे उसे योग्य आहार दे उसे वह स्वीकार कर ले / ___ इसी भावको मूलाचारमें अनगारभावनाके प्रसङ्गसे इन शब्दोंमें व्यक्त किया गया है अण्णादमणुण्णादं भिक्खं णिच्चुच्चमज्झिमकुलेसु / घरपंतीहिं हिंडंति य मोणेण मुणी समादिति // 47 // आचार्य कुन्दकुन्दने मुनिदीक्षा कैसी होती है इस विषयको स्पष्ट करते हुए बोधप्राभृतकी उक्त गाथामें जो कुछ कहा है, मूलाचारकी प्रकृत गाथा द्वारा प्रकारान्तरसे उसी विषयका सुस्पष्ट शब्दोंमें समर्थन किया गया है / इसमें जो कुछ कहा गया है उसका भाव यह है कि साधु घरोंकी पंक्तिके अनुसार चारिका करते हुए मध्यम और उत्तम कुलोंमें तो अज्ञात और अनुज्ञात भिक्षाको मौनपूर्वक स्वीकार करते ही हैं। किन्तु नीचकुलोंमें जाकर भी वे उसे स्वीकार कर लेते हैं / यही कारण है कि मूलाचार आदि में दायकदोषका विचार करते हुए किसी गृहस्थको जाति या कुलके आधार पर आहार देनेके लिए अपात्र नहीं ठहरा कर अन्य कारणोंसे उसे अपात्र ठहराया गया है। दायक दोषके प्रसङ्गसे दाताके जो भी दोष कहे गये हैं उन दोषोंसे रहित आर्य या म्लेच्छ तथा ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या शुद्ध जो भी हो वह साधुको दान देनेका अधिकारी है और जिसमें ये दोष हैं वह दान देनेका अधिकारी नहीं है यइ उक्त कथनका तात्पर्य है / ___ षटखण्डागम कर्म अनुयोगद्वारके 26 वें सूत्रकी धवला टीकामें परि हार प्रायश्चित्तके अनवस्थाप्य और पारञ्चिक ये दो भेद करके वहाँ पर इन * 'दोनों प्रकारके प्रायश्चित्तोंका उत्कृष्ट काल बारह वर्ष बतलाया गया है। साथ ही पारञ्चिक प्रायश्चित्तको विशेषताका निर्देश करते हुए वहाँपर कहा
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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