________________ 240 वर्ण, जाति और धर्म तेल या उवटन लगा रही है, बाल है, वृद्धा है, भोजन कर रही है, गर्भिणी है, अन्धी है, भीत आदिके अन्तरालसे खड़ी है, बैठी है; साधुले ऊपर या नीचे खड़ी है, मुखसे या पंखासे हवा कर रही है, अग्नि जला रही है, लकड़ी आदिके उठाने, धरने और सरकानेमें लगी हुई है, राख या जलसे अग्निको बुझा रही है, वायुके प्रवाहको रोक रही है, एक वस्तुको दूसरी वस्तुसे रगड़ रही है, लीप-पोत रही है, जलादिसे सफाई कर रही है और दूध पीते हुए बालकको अलग कर रही है। इसी प्रकार और भी जो स्त्री : या पुरुष हिंसाबहुल कार्यमें लगे हुए हैं वे दायक दोषके कारण न तो साधु को आहार देनेके लिए अधिकारी माने गये हैं और न साधुको ही ऐसे स्त्री या पुरुषके हाथसे आहार लेना चाहिए। ___ साधारणतः साधु किस गृहस्थके हाथका आहार ले यह बहुत ही महत्त्वपूर्ण विचारणीय प्रश्न है। जिसने सब प्रकारके लोकाचारको तिलाञ्जलि देकर एकमात्र अध्यात्मधर्मकी शरण ली है, जिसने जातीय आधारपर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुदके विकल्यको दूरसे त्याग दिया है तथा जिसने वर्तमान पर्यायकी अपेक्षा प्रत्येक कर्मभूमिज मनुष्यमें अपने समान निर्ग्रन्थ धर्मको धारण करनेकी योग्यताको स्वीकार कर उससे अपनी श्रात्माको सुवासित कर लिया है वह साधु यह ब्राह्मण, क्षत्रिय या वैश्य है, इसलिए इसके हाथका आहार लेना चाहिए और यह शूद्र है, इसलिए इसके हाथका आहार नहीं लेना चाहिए इस प्रकारकी द्विधा वृत्तिको अपने मनमें स्थान नहीं दे सकता। यह एक ध्रुव सत्य है जिसे आचार्य कुन्दकुन्द श्रोर वट्टकर स्वामीने स्पष्ट शब्दोंमें स्वीकार किया है। प्राचार्य कुन्दकुन्द बोधप्राभृतमें कहते हैं: उत्तम-मज्झिमगेहे दारिदे ईसरे णिरावेक्खा / सव्वस्थ गिहिदषिण्डा पञ्चजा एरिसा भणिया // 48 // श्राचार्य कुन्दकुन्द साधु दीक्षाकी यह सबसे बड़ी विशेषता मानते हैं कि जो मनुष्य जैनसाधुकी दीक्षा लेता है वह कुलीनताकी दृष्टिसे उत्तम,