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________________ आहारग्रहण मीमांसा . 236 जिसने अपनी सन्तानका या अपना अन्तर्जातीय विवाह किया है और जो “अन्य कारणसे जातिच्युत मान लिया गया है उसके हाथका साधु या अपने को कुलीन माननेवाला गृहस्थ आहार नहीं लेता यह भी एक नियम देखा जाता है। इस प्रकार वर्तमान कालमें भोजन-पानके सम्बन्धमें अनेक प्रकारकी परम्पराएँ चल पड़ी हैं। जिसे अपने लिए धर्मात्मापनकी छाप लगवानी है उसे इन सब नियमोंका अवश्य विचार करना पड़ता है / इसमें तो सन्देह नहीं कि भोजन-पानका जीवनके साथ गहरा सम्बन्ध है, क्योंकि आध्यात्मिक जीवनके निर्माणके लिए मनकी शुद्धिमें अन्य द्रव्य, क्षेत्र और कालके समान उससे सहायता अवश्य मिलती है / यही कारण है कि मुनि-अाचारका प्रतिपादन करनेवाले मूलाचार आदि प्रमुख ग्रन्थोंमें इसके लिए पिण्डशुद्धि नामक स्वतन्त्र अधिकार रचा गया है / पिण्ड शरीरके समान भोजनको भी कहते हैं। किन दोषोंका परिहार करनेसे साधुके आहारकी शुद्धि बनती है उन सबका इसमें सूक्ष्मताके साथ विचार किया गया है / तात्पर्य यह है कि इस अधिकारमें भोजन सम्बन्धी उन सब दोषोंका साङ्गोपाङ्ग विवेचन किया गया है जिनका परिहार कर भोजनको स्वीकार करना साधुके लिए आवश्यक होता है। इतना ही नहीं, उनमें ऐसे भी बहुतसे दोष हैं जिनका विचार गृहस्थको भी करना पड़ता है। ये सब दोष उद्गम, उत्पादना और एषणाके भेदसे तीन भागोंमें तथा अपने अवान्तर भेदोंकी अपेक्षा छयालीस भेदोंमें बटे हुए हैं। एषणा दोषके अवान्तर भेदोंमें एक दायक दोष भी है / इसमें कौन स्त्री या पुरुष आहार देनेका अधिकारी नहीं हो सकता इसकी साङ्गोपाङ्ग मीमांसा करते हुए बतलाया गया है कि जिस स्त्रीने बालकको जन्म दिया है, जो मदिरा पिये हुए है या जिसे मदिरा-पानको आदत पड़ी है, जो रोगग्रस्त है, मृतकको श्मशानमें छोड़कर आया है, हिजड़ा है, भूताविष्ट है, नग्न है, मल-मूत्र करके आया है, मूर्छित है, जिसने वमन किया है, जिसके शरीरसे रक्त बह रहा है, जो वेश्या है, आर्यिका है, जो शरीरमें
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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