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________________ .238 - वर्ण, जाति और धर्म आहारग्रहण मीमांसा दान देनेका अधिकारो पिछले अध्यायमें जैनधर्मके अनुसार मुनिधर्म और श्रावकधर्मको स्वीकार करनेका अधिकारी कौन है इसका साङ्गोपाङ्ग विचार कर आये हैं। इस अध्यायमें मुख्यरूपसे आहार देनेका पात्र कौन हो सकता है इस विषयका साङ्गोपाङ्ग विचार करना है। यह तो सुविदित है कि उत्तरकालीन जैनसाहित्यमें कुछ ऐसे वचन बहुलतासे पाये जाते हैं जिनमें जातीय आधारपर विवाह आदिके समान खान-पानका विचार किया गया है। साधारणतः भारतवर्षमें यह परिपाटी देखी जाती है कि अन्य सब तो ब्राह्मणके हाथका भोजन करते हैं, परन्तु अन्यके हाथका ब्राह्मण भोजन नहीं करता। अन्यके द्वारा स्पर्श कर लेने मात्रसे वह अपवित्र हो जाता है / केवल ब्राह्मणोंमें ही यह प्रथा प्रचलित हो ऐसी बात नहीं है। इसका प्रभाव न्यूनाधिकमात्रामें अन्य जातियोंमें भी दृष्टिगोचर होता है। इसके सिवा चौका व्यवस्था व कच्चे-पक्केका नियम आदि और भी अनेक नियम प्रदेशभेदसे दृष्टिगोचर होते हैं। कहीं-कहीं सोलाकी पद्धति भी इसका आवश्यक अङ्ग बन गई है। जैनियोंमें जो स्त्री या पुरुष व्रती हो जाते हैं उनमें तो एकमात्र सोला हो धर्म रह गया है। वर्तमानमें लगभग 3.0, 35 वर्षसे एक नया सम्प्रदाय और चल पढ़ा है। इसके अनुसार किसी साधुके आहारके लिए गृहस्थके घर जानेपर गृहस्थको नवधामक्तिके साथ जीवन भरके लिए शूद्रके हाथसे भरे हुए या उसके द्वारा स्पर्श किये गये पानीके त्यागका नियम भी लेना पड़ता है। कोई साधु इस नियमके स्थानमें मात्र जैनीके हाथसे भरे हुए पानीके पीनेका नियम दिलाते हैं। तात्पर्य यह है कि कोई गृहस्थ इस प्रकारका नियम नहीं लेता है तो उसका घर साधुके आहारके अयोग्य घोषित करा दिया जाता है। उस गृहस्थके हाथसे न तो साधु ही आहार लेते हैं और न इस नियमको स्वीकार करनेवाले गृहस्थ ही /
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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