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________________ जिनदीक्षाधिकार मीमांसा 237 अधिकारी माने गये हैं। ऐसी अवस्थामें शूद्र मोक्षमार्गमें अधिकारी न हों यह सम्भव नहीं प्रतीत होता। प्रत्येक मनुष्यका सदाचारी होना उत्तम है इसमें सन्देह नहीं। परन्तु वह पहले खोटे कर्मोंमें रत रहा है, इसलिए वह कभी भी उत्तम मार्गका अधिकारी नहीं हो सकता यह जिनाज्ञा नहीं है। जिस प्रकार चन्द्र अपने शीतल प्रकाशकी छटासे नीच और ऊँच सबको पालोकित करता है और जिस प्रकार मेघ सबके ऊपर समान वरसा करता है उसी प्रकार धर्म भी नीच और ऊँच सबको शरण देकर उनकी आत्माको अनन्त सुखका पात्र बनाता है। पारलौकिक धर्मके इस अपरिमित माहात्म्यको सोमदेवसूरिने भी हृदयङ्गम किया था। तभी तो अनायास उनके मुखसे ये वचन निकल पड़ते हैं उच्चावचजनप्रायः समयोऽयं जिनेशिनाम् / नैकस्मिन् पुरुषे तिप्ठेदेकस्तम्भ इवालयः // जिनेन्द्र भगवानका यह शासन ऊँच और नीच सबके लिए है, क्योंकि जिस प्रकार एक स्तम्भके आश्रयसे महल नहीं टिक सकता उसी प्रकार एक पुरुषके श्राश्रयसे जैनशासन भी नहीं स्थिर रह सकता। ह. भट्टारक सोमदेवने तीन वर्णकी महत्ता प्रस्थापित करनेके लिए जितना सम्भव था उतना प्रयत्न किया है। किन्तु सत्य वह वस्तु है जिसे चिरकाल तक गलेके नीचे दबाकर नहीं रखा जा सकता। अन्तमें उसे प्रकट करना ही पड़ता है / जैसा कि उनके इस वचनसे प्रकट है विप्रक्षत्रियविंटशूद्राः प्रोक्ता क्रियाविशेषतः। . . जैनधर्मे पराः शक्तास्ते सर्वे बान्धवोपमाः // / क्रियाभेदसे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ये भेद कहे गये हैं। जैनधर्ममें अत्यन्त आसक्त हुए वे सब परस्पर भाई-भाईके समान हैं। - वह जैनशासन जो सबको समान भावसे शरण देता है चिरकालतक जयवन्त रहो।
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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