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________________ 234 वर्ण, जाति और धर्म ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास इन चार आश्रमोंके आश्रयसे जो . क्रम और विधि स्वीकार की गई है, गर्भाधानादि संस्कारोंको स्वीकार कर महापुराणकार उसी क्रम और विधिको मान्य रखते हुए प्रतीत होते हैं। ___5. महापुराणमें गर्भान्वय क्रियात्रोंको संख्या 53 बतलाई है। उनमें से पहली क्रियाका नाम गर्भान्वय है / गृहस्थ इस क्रियाको अपनी स्त्रीमें गर्भ धारण करनेकी इच्छासे करता है। दूसरी क्रियाका नाम प्रीति है। यह क्रिया अपनी स्त्रीमें गर्भ धारण होनेके कारण अानन्दोत्सव करनेके अभिप्रायसे तीसरे माहमें की जाती है। तीसरी क्रियाका नाम सुप्रीति है / यह क्रिया भी उक्त अभिप्रायसे पाँचवें माहमें की जाती है। आगे धृति, मोद, प्रियोद्भव, नामकर्म, बहिर्यान, निषद्या, अन्नप्राशन, व्युष्टि और केशवाप इन क्रियात्रोंका उद्देश्य भी गृहस्थका पुत्र उत्पन्न होनेके कारण अपने आनन्दको व्यक्त करना मात्र है। गृहस्थका संसार बढ़ता है और वह अानन्द मनाता है यह इन क्रियानोंके करनेका अभिप्राय है। मनुस्मृतिमें ये क्रियाएँ 'अपुत्रस्य गतिनास्ति' इस सिद्धान्तकी पुष्टि के अभिप्रायसे कही गई हैं। महापुराणकारने भी प्रच्छन्नभावसे इस सिद्धान्तको मान्य कर इन क्रियाओंका विधान किया है। अन्तर केवल इतना है कि मनुस्मृतिके अनुसार ये क्रियाएँ वैदिक मन्त्रोंके साथ करनेका विधान है और महापुराणके अनुसार इन क्रियाओंको करनेके लिए भरत महाराजके मुखसे अलगसे क्रियागर्भ मन्त्रोंका उपदेश दिलाया गया है। दुर्भाग्यसे यदि पुत्री उत्पन्न होती है तो ये क्रियाएं नहीं की जाती हैं। पुत्री उत्पन्न होनेके पूर्व जितनी क्रियाएँ अँधेरेमें हो लेती हैं उन पर गृहस्थ किसी प्रकारकी टीका टिप्पणी न कर सन्तोष मानकर बैठ जाय यही बहुत है। इस प्रकार इन क्रियाओंके स्वरूप पर विचार करनेसे यह स्पष्ट हो जाता है कि इन क्रियाओंका उद्देश्य सांसारिक है। मात्र इनको करते समय पूजा और हवनविधि कर ली जाती है। आगे जो क्रियाएँ बतलाई हैं उनमेंसे भी कुछ क्रियाएँ लगभग इसी अभिप्रायसे कही गई हैं। इस प्रकार ये क्रियाएँ
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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