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________________ जिनदीक्षाधिकार मीमांसा 235 सांसारिक प्रयोजनको लिए हुए हैं, इसलिए उनके साथ श्रावकदीक्षा और मुनिदीक्षाका सम्बन्ध स्थापित करनेवाले वचन आगमवचन नहीं माने जा सकते। 6. जैनधर्ममें भावपूर्वक स्वयं की गई क्रिया हो मोक्षमार्ग में उपयोगी मानी गई है। अन्य व्यक्ति के द्वारा की गई क्रियासे उसमें उपयोग लगाये बिना दूसरा व्यक्ति संस्कारित होता हो यह सिद्धान्त जैनधर्ममें मान्य नहीं है। यह वस्तुस्थिति है जो सर्वत्र लागू होती है। किन्तु इन गर्भाधानादि क्रियाओंमें उक्त सिद्धान्त की अवहेलना की गई है। इसलिए भी जिसने इन क्रियाओंको किया वही श्रावकदीक्षा और मुनिदीक्षाका अधिकारी है यह कथन मान्य नहीं किया जा सकता। 7. आगममें मिथ्यादृष्टि जीव मरकर कहाँ उत्पन्न होता है इसके लिए गत्यागतिके नियमोंको छोड़कर अन्य कोई नियम नहीं है। तद्भव मोक्षगामी जीव भी मनुष्य पर्यायमें उत्पन्न होते समय वह नियमसे कर्मभूमिज गर्भज मनुष्य होगा, इतना ही नियम किया है। ऐसा मनुष्य उच्चगोत्री भी हो सकता है और नीचगोत्री भी हो सकता है। यदि नीचगोत्री होगा तो सकलसंयमको लेते समय वह नियमसे उच्चगोत्री हो जायगा। यह तो मिथ्यादृष्टि जीवके लिए व्यवस्था बतलाई है। सम्यग्दृष्टि जीवके लिए यह व्यवस्था कही है कि ऐसा जीव पहले. नरकके बिना छह नरकोंमें नहीं उत्पन्न होता, भवनत्रिक देवों और देवियोंमें नहीं उत्पन्न होता, प्रथम नरकके सिवा सब प्रकारके नपुंसकोंमें नहीं उत्पन्न होता तथा एकेन्द्रियादि सम्मूर्छन जन्मवालोंमें नहीं होता / अन्यत्र उसके उत्पन्न होनेमें कोई बाधा नहीं है। इस नियमके अनुसार यह भी नीचगोत्री और उच्चगोत्री दोनों प्रकारके मनुष्योंमें उत्पन्न होकर उसो भवसे मोक्षका अधिकारी हो सकता है। इसलिए भी त्रिवर्णका मनुष्य ही श्रावकदीक्षा और मुनिदीक्षाका अधिकारी है यह सिद्धान्त मान्य नहीं किया जा सकता। - 8. आचार्य कुन्दकुन्दने चरणानुयोगके अनुसार कुछ नियमोंका
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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