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________________ जिनदीक्षाधिकार मीमांसा 233 व्यवस्थामैं उसे स्वीकार कर लेना अत्यन्त आवश्यक था, अन्यथा उपनयनसंस्कार आदि विधिपर जैन परम्परामें छाप लगाना कठिन हो नहीं असम्भव हो जाता, इसलिए प्राचार्य जिनसेनने अपनी योजनानुसार उपनयनसंस्कार के साथ पितृतर्पण और अग्निहोत्रादि कर्मको तो स्वीकार किया ही। साथ ही उसमें पाँच अणुव्रत आदिको और जोड़ दिया। इस प्रकार इतने विवेचनसे स्पष्ट हो जाता है कि महापुराण या उसके उत्तरकालवर्ती यशस्तिलकचम्पू और सागारधर्मामृत आदिमें जो तीन वर्णके मनुष्यको दीक्षाका अधिकारी बतलाया गया है वह सब मनुस्मृतिका अनुसरणमात्र है। उसे आगमविधि किसी भी अवस्थामें नहीं कहा जा सकता। महापुराणकी इस व्यवस्थाको आगमविधि न माननेके और भी कई कारण हैं। खुलासा प्रकार है 1. श्रावकधर्मको स्त्रियाँ और तिर्यञ्च भी स्वीकार करते हैं परन्तु उनका उपनयनसंस्कार नहीं होता। 2. पुराणोंमें जितनी भी कथाएँ आई हैं उनमें कहीं भी उपनयनसंस्कारका उल्लेख नहीं किया है। उनमेंसे अधिकतर कथात्रोंमें यही . बतलाया गया है कि कोई भव्य जीव मुनि या केवलीके उपदेशको सुनकर अपनी योग्यतानुसार श्रावकधर्म या मुनिधर्ममें दीक्षित हुआ। दीक्षा लेनेवालोंमें बहुतसे चाण्डाल अदि शूद्र भी रहते थे। .. 3. उत्कृष्ट श्रावकधर्मका पालन करनेवाला अधिकसे अधिक सोलहवें स्वर्ग तक जाता है। यह अन्तिम अवधि है। जिसने जीवन भर ऐलक धर्म या आर्यिका धर्मका उत्तम रीतिसे पालन किया है वह भी इस नियम का उल्लंघन नहीं कर सकता / पुराणों में एक कथा .आई है जिसमें चण्डाल द्वारा श्रावकधर्मको स्वीकार करके उसका सोलहवें स्वर्गमें देव होना लिखा है। इससे स्पष्ट है कि उपनयनसंस्कारपूर्वक श्रावक धर्मकी दीक्षा तीन . वर्णवाला ही ले सकता है और वही अन्तमें मुनिदीक्षाका अधिकारी है, महापुराणका यह विधान मनुस्मृतिका अनुसरणमात्र है, क्योंकि मनुस्मृतिमें
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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