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________________ 232 वर्ण, जाति और धर्म व्यवस्थाको मृषा मानते रहे हैं इसमें सन्देह नहीं। तथा शूद्रोंके साथ न्याय हो इस ओर भी उनका मन झुका हुआ दिखाई देता है। फिर भी वे आचार्य जिनसेन और सोमदेव सूरि द्वारा धराये गये मार्गको सर्वथा नहीं छोड़ना चाहते इसीका आश्चर्य होता है। पण्डितप्रवर श्राशाधर जो ने अपने सागारधर्मामृतके अध्याय दोके २०वें श्लोकको टीकामें दीक्षाका स्पष्टीकरण करते हुए उसे तीन प्रकारकी बतलाया है-उपासकदीक्षा, जिनमुद्रा और उपनीत्यादिसंस्कार / इससे प्रकट होता है कि आचार्य जिनसेनके समान सोमदेव सूरि और पण्डित प्रवर आशाधर जी भी यह मानते रहे हैं कि शूद्र न तो गृहस्थधर्मकी दीक्षा ले सकता है, न मुनि हो सकता है और न उसका उपनयन आदि संस्कार ही हों सकता है। मनुस्मृतिमें 'न संस्कारमर्हति ( 10-126 ) इस पदका खुलासा करते हुए टीकाकारने कहा है कि 'शूद्र संस्कारके योग्य नहीं है इसका तात्पर्य यह है कि शूद्र उपनयन आदि संस्कार पूर्वक अग्नि होत्रादिधर्ममें अधिकारी नहीं है, क्योंकि उसके लिए यह विहित मार्ग नहीं है। यदि वह पाकयज्ञादि धर्मका आचरण करता है तो विहित होनेसे उसका निषेध नहीं है।' मनुस्मृतिके इस वचनके प्रकाशमें महापुराणके उस वचन पर दृष्टिपात कीजिए जिसमें यह कहा गया है कि उपनयनसंस्कार होनेके बाद यह द्विज श्रावकधर्मकी दीक्षा लेता है। ब्राह्मणधर्ममें उपनयन संस्कार तथा अंग्निहोत्रादि कर्म ही गृहस्थ धर्म है, इसलिए वहाँ उपनयनसंस्कारपूर्वक अग्निहोत्रादि कर्मके करनेका विधान किया गया है और जैनधर्ममें पाँच अणुव्रत आदिको स्वीकार करना गृहस्थ धर्म है, इसलिए यहाँ उपनयनसंस्कारपूर्वक पाँच अणुव्रत आदिके स्वीकार करनेका विधान किया गया है। मनुस्मृतिके कथनमें और महापुराणके कथनमें इस प्रकार जो थोड़ा-सा अंन्तर दिखलाई देता है इसका कारण केवल इतना ही है कि आगमपरम्परामें जो पाँच अणुव्रत आदिके स्वीकार करनेको गृहस्थधर्म कहा गया है, प्रकृत
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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