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________________ म्यक्तिधर्म घर किये हुए है जिसके कारण वह अपने स्वतन्त्र व्यक्तित्वको भूला हुआ है / अपनी इस आध्यात्मिक कमजोरीवश उसने ऐहिक उन्नतिको ही अपनी उन्नति मान रखा है। विचारकर देखा जाय तो ऐहिक जीवनकी मर्यादा ही कितनी है। वह भौतिक आवरणोंसे आच्छादित है, इतना ही नहीं, जीवनके अन्तमें इस जीवको उसका त्याग ही करना पड़ता है। प्रकृतमें विचारणीय प्रश्न यह है कि क्या वह इन सब भौतिक साधनोंका स्वयं स्वामी है ? यदि हाँ तो उसके जीवनकालमें ही वे उससे अलग क्यों हो जाते हैं और यदि नहीं तो वह उनके पीछे पड़कर अपने स्वत्वको क्यों गँवा बैठता है। प्रश्न मार्मिक है। तीर्थहरोंने अपने जीवनको आध्यात्मिक उन्नतिकी प्रयोगशाला बनाकर इस तथ्यको हृदयङ्गम किया था। परिणामस्वरूप उन्होंने धर्मका जो स्वरूप स्थिर किया उसपर चलकर प्रत्येक प्राणी ऐहिक उन्नतिके साथ पारलौकिक उन्नति करनेमें सफल होता है। यहाँ यह स्मरणीय है कि ऐहिक उन्नति भौतिक साधनोंकी विपुलता न होकर सुखी जीवन है और सुखी जीवनका मूल आधार आध्यात्मिक सन्तोष है। प्रायः हम देखते हैं कि इस गुणके अभावमें साधनसम्पन्न और विविध कलाओंमें निपुण व्यक्ति भी दुखी देखे जाते हैं, इसलिए वर्तमान जीवनमें भौतिक साधनोंकी उतनी महत्ता नहीं है जितनी इस प्राणीने समझ रखी है। महत्ता है पारलौकिक उन्नतिको लक्ष्यमें रखकर सन्तोषपूर्वक सुखी जीवन बनानेकी / तीर्थङ्करों और सन्तोंने सुखी जीवनको प्राप्त करनेका जो मार्ग बतलाया उसीको धर्म कहते हैं। स्वामी समन्तभद्र धर्मकथनकी प्रतिज्ञा करते हुए उसके दो गुणोंका मुख्यरूपसे उल्लेख करते हैं। वे कहते हैं कि धर्मका प्रथम गुण राग-द्वेष आदि अन्तर्मलको धोनेकी क्षमता है और दूसरा गुण प्राणीमात्रको दुःखसे छुड़ाकर उत्तम सुखका प्राप्त कराना है। उनके कथनानुसार जिसमें ये दो विशेषताएँ हों धर्म वही हो सकता है। अन्य सब लौकिक व्यवहार है। इसी अभिप्रायको उन्होंने इन शब्दोंमें व्यक्त किया है
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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