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________________ 20 वर्ण, जाति और धर्म * अन्य जीवधारियोंके हिताहितका तो विचार ही नहीं किया गया है। मनुष्यों के हितका विचार करते हुए भी इनका दृष्टिकोण उतना उदारवादी नहीं है। उदाहरणार्थ वैदिकधर्ममें मनुष्यजातिको भी जन्मसे चार भागोंमें विभक्त करके उनके अलग-अलग कर्तव्य और अधिकार निश्चित कर दिए गये हैं। इस धर्मके अनुसार कोई शुद्र अपना कर्म बदलकर उच्चवर्णके कर्तव्योंका अधिकारी नहीं बन सकता। इसमें क्षत्रिय और वैश्यवर्णको भी. ब्राह्मणवर्णसे हीन बतलाया गया है। ब्राह्मण सबका गुरु है यह इस धर्म की मुख्य मान्यता है। वर्गप्रभुत्वकी स्थापना करनेके लिए ही इस धर्मका जन्म हुआ है, इसलिए इसे ब्राह्मणधर्म भी कहते हैं। ईसाईधर्म और मुस्लिमधर्ममें यद्यपि इस प्रकारका श्रेणिविभाग दृष्टिगोचर नहीं होता और इन धर्मों में उच्च-नीचकी भावनाको समाजमें मान्यता भी नहीं दी गई है, फिर भी इनका लक्ष्य कुछ निश्चित सिद्धान्तोंके आधारपर मानवसमाज तक ही सीमित हैं। आत्मीक उन्नति इनका लक्ष्य नहीं है, इसलिए ये तीनों ही धर्म समाजधर्मके अन्तर्गत आते हैं। व्यक्तिधर्म . . जैनधर्मकी विशेषता___ यह तो हम पहले ही बतला आये हैं कि जैनधर्म मुख्यरूपसे व्यक्ति वादी धर्म है। व्यक्ति उस इकाईका नाम है जो जीवधारी प्रत्येक प्राणीमें पृथक्-पृथक् दृष्टिगोचर होती है। व्यक्तिके इस व्यक्तित्वको प्रतिष्ठित करना ही जैनधर्मकी सर्वोपरि विशेषता है। जैनधर्म व्यक्तिवादी है इसका यह तात्पर्य नहीं है कि वह किसी एक व्यक्तिको स्वार्थपूर्ति के लिए अन्य व्यक्तियों के स्वत्वापहरणको विधेय मानता है / लौकिक स्वार्थपूर्तिको तो वह वास्तवमें स्वार्थ ही नहीं मानता। प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में अनादि कालसे कमजोरी
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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