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________________ मानवको ही प्राप्त न होकर प्राणीमात्रको मिला हुआ है। किसी एक गौ पर हिंस्र पशुका आक्रमण होने पर अन्य गौ उसकी रक्षाके लिए क्यों दौड़ पड़ती हैं ? इसका कारण क्या है ? यही न कि अन्यकी रक्षामें ही अपनी रक्षा है इसके महत्त्वको वे भी समझती हैं। यह समझदारी मनुष्योंतक ही सीमित नहीं है / किन्तु जितने जीवधारी प्राणी हैं, न्यूनाधिक मात्रामें वह सबमें पाई जाती है। यह वह विवेक है. जो प्रत्येक प्राणीको धर्म अर्थात् अपने कर्तव्यकी ओर आकृष्ट करता है। धर्मके अवान्तर भेद और उनका स्वरूप... साधारणतः संस्थापकों या सम्प्रदायोंकी दृष्टि से धर्मके जैनधर्म, बौद्धधर्म, वैदिकधर्म, ईसाईधर्म और मुस्लिमधर्म आदि अनेक भेद हैं। किन्तु समुच्चयरूपसे इन्हें हम दो भागोंमें विभाजित कर सकते हैं—व्यक्तिधर्म या सामान्यधर्म और सामाजिकधर्म या लोकिकधर्म। व्यक्तिधर्म या सामान्यधर्ममें देश, काल, जाति और वर्गविशेषका विचार किए बिना प्राणीमात्रके कल्याणके मार्गका निर्देश किया गया है और सामाजिकधर्ममें केवल मनुष्योंके या मनुष्योंको अनेक भागोंमें विभक्त कर उनके लौकिक मान्यताओं के आधारपर पृथक्-पृथक् अधिकारों और कर्तव्योंका निर्देश किया गया है। तात्पर्य यह है कि व्यक्तिधर्म सब प्राणियोंको ऐहिक और पारलौकिक उन्नति और सुख-सुविधाका विचार करता है और सामाजिकधर्म मात्र मानवमात्रके ऐहिक हित साधन तक ही सीमित है। यहाँ हमने जिन धर्मोका नामोल्लेख किया है उनमें जैनधर्म मुख्यरूपसे व्यक्तिवादी धर्म है / इसे आत्मधर्म भी कहते हैं। बौद्धधर्मकी प्रकृति और स्वरूपका विचार करनेपर वह भी व्यक्तिवादी धर्म माना जा सकता है। पर बौद्धधर्ममें व्यक्तिवादी होनेके वे सब चिह्न उतने स्पष्टरूपमें दृष्टिगोचर नहीं होते जो व्यक्तिवादी धर्मकी आत्मा है। शेष वैदिकधर्म, ईसाईधर्म और मुसलिमधर्म मुख्यरूपसे सामाजिकधर्म हैं। इनमें मनुष्यजातिको छोड़कर
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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