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________________ 224 वर्ण, जाति और धर्म अपने-अपने आगमका त्याग करनेके लिए तैयार था और न अपने-अपने आगमके अनुसार निश्चित किये गए कार्यक्रमको ही छोड़नेके लिए तैयार था / यह वस्तुस्थिति है जिसकी स्वीकृति हमें पातञ्जलभाष्यके इन शब्दोंमें दृष्टिगोचर होती है. येषां च विरोधः शाश्वतिकः [ 2 / 4 / 3 / ] इत्यस्यावकाशः-श्रमणब्राह्मणम् / ___ पाणिनि ऋषिने वृक्ष, मृग, तृण, धान्य, व्यञ्जन, पशु और शकुनि आदि वाची शब्दोंका द्वन्द्व समास करने पर विकल्पसे एकवद्भाव स्वीकार किया है, इसलिए यह प्रश्न उठा कि ऐसी अवस्थामें 'येषां च विरोधः शाश्वतिकः' इस सूत्रके लिए कहाँ अवकाश है.। पतञ्जलि ऋषि इसी प्रश्नका समाधान करते हुए 'श्रमणब्राह्मणम्' इस उदाहरणको उपस्थित करते हैं। इस प्रसङ्गमें दिये गये इस उदाहरण द्वारा उन्होंने वही शाश्वतिक विरोधकी बात स्वीकार की है जिसका हम इसके पूर्व अभी उल्लेख कर आए हैं / यद्यपि पाणिनि व्याकरणके अन्य टीकाकार 'येषां च विरोधः' इत्यादि सूत्रकी टीका करते हुए 'श्रमणब्राह्मणम्' इस उदाहरणका उल्लेख नहीं करते। परन्तु पतञ्जलि ऋषिको इस सूत्रको चरितार्थ करनेके लिए श्रमण ब्राह्मणम्' इसके सिवा अन्य उदाहरण ही नहीं दिखलाई दिया यह स्थिति क्या प्रकट करती है ? इससे स्पष्ट मालूम होता है कि पतञ्जलि ऋषि और अन्य टीकाकारों के मध्यकालमें विरोधकी स्थितिको शमन करनेवाली परिस्थितिका निर्माण अवश्य हुआ है। यह कार्य दोनोंकी ओरसे किया गया है यह तो हम तत्काल निश्चयपूर्वक नहीं कह सकते। परन्तु जैनेन्द्र व्याकरणके उक्त सूत्रकी साक्षीमें यह अवश्य ही निश्चयपूर्वक कह सकते हैं कि श्रमणों और ब्राह्मणोंके मध्य पुराने कालसे चले आ रहे इस विरोधके शमनका.कार्य सर्व प्रथम इस सूत्रके द्वारा किया गया है। यह एक ऐतिहासिक सत्य है जिसे यहाँ हम स्पष्ट रूपसे निर्दिष्ट कर रहे हैं। इसकी पुष्टिमें प्रमाण यह है कि सर्व प्रथम पाणिनि ऋषिने यह सूत्र अनिरवसित शूद्रोंके लिए वचन
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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